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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोदेशके: गाथा २६-२७ जे 'एय चरंति आहियं, 2नाएणं महया महेसिणा ।
ते उट्ठिय ते समुट्ठिया अन्नोन्नं सारंति धम्मओ
॥२६॥
छाया - य एनं चरन्त्याख्यातं ज्ञातेन महता महर्षिणा । ते उत्थितास्ते समुत्थिता, अव्योऽव्यं सारयन्ति धर्मतः॥ व्याकरण - (महया, महेसिणा ) नाएणं का विशेषण (नाएणं) कर्तृ तृतीयान्त (आहियं) कर्म का विशेषण (एयं) धर्म का परामर्शक सर्वनाम कर्म (जे) कर्ता (चरंति) क्रिया (उट्ठिय समुट्ठिया) कर्ता के विशेषण (ते) कर्ता का परामर्शक सर्वनाम (अन्नोन्नं) कर्म (धम्मओ) लुप्तल्यबन्त का कर्म पञ्चम्यन्त (सारंति) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (महया) महान् (महेसिणा ) महर्षि (नाएणं) ज्ञात पुत्र के द्वारा (आहियं ) कहे हुए (एयं) इस धर्म को (जे) जो पुरुष (चरंति) आचरण करते हैं। ) वे ही (उट्ठिय) उत्थित हैं (ते) और वे ही (समुट्ठिया) सम्यक् प्रकार से उत्थित हैं (धम्मओ) तथा धर्म से भ्रष्ट होते हुए (अन्नोन्नं) एक दूसरे को वे ही (सारंति) फिर धर्म में प्रवृत्त करते हैं ।
मानपरित्यागाधिकारः
भावार्थ - महान् महर्षि ज्ञात पुत्र के द्वारा कहे हुए धर्म को जो पुरुष आचरण करते हैं, वही उत्थित धर्म मार्ग में प्रवृत्त तथा सम्यक् प्रकार से प्रवृत्त समुत्थित हैं । तथा वे ही धर्म से भ्रष्ट होते हुए परस्पर को फिर धर्म में प्रवृत्त करते हैं।
टीका - ये मनुष्या एनं प्रागुक्तं धर्मं ग्रामधर्मविरतिलक्षणं चरन्ति कुर्वन्ति आख्यातं ज्ञातेन ज्ञातपुत्रेण 'महये'त्ति महाविषयस्य ज्ञानस्यानन्यभूतत्वान्महान् तेन, तथाऽनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहिष्णुत्वान्महर्षिणा श्रीवर्धमान - स्वामिना आख्यातं धर्मं ये चरन्ति ते एव संयमोत्थानेन - कुतीर्थिकपरिहारेणोत्थिताः तथा निह्नवादिपरिहारेण त एव सम्यक्कुमार्गदेशनापरित्यागेनोत्थिताः समुत्थिता इति, नाऽन्ये कुप्रावचनिकाः जमालिप्रभृतयश्चेति भावः, त एव च यथोक्तधर्मानुष्ठायिनः अन्योऽन्यं परस्परं धर्मतो धर्ममाश्रित्य धर्मतो वा भ्रश्यन्तं सारयन्ति चोदयन्ति पुनरपि सद्धर्मे प्रवर्तयन्तीति ॥ २६ ॥ किञ्च
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टीकार्थ जिसका विषय महान् है ऐसा केवलज्ञान, भगवान् महावीरस्वामी से भिन्न नहीं है, इसलिए यहाँ भगवान को महान् कहा है। ऐसे महान् तथा अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को सहनशील महर्षि ज्ञातपुत्र श्रीवर्धमान स्वामी के द्वारा प्रतिपादित, ग्राम धर्म का त्याग स्वरूप जो धर्म है, उसका जो आचरण करते हैं, वे ही संयम में प्रवृत्त तथा कुतीर्थिक धर्म का त्यागकर सम्यग्धर्म में प्रवृत्त हैं । तथा वे ही निह्नव आदि को छोड़कर कुमार्ग के उपदेश से अच्छी तरह हटे हुए हैं, परन्तु कुप्रावचनिक और जामालि प्रभृति कुमार्गदेशना से हटे हुए नहीं हैं । एवं यथोक्त धर्म का अनुष्ठान करनेवाले वे ही परस्पर एक दूसरे को धर्म में प्रेरित करते हैं अथवा धर्म से भ्रष्ट होते हुए को फिर वे धर्म में प्रवृत्त करते हैं ||२६||
मा पेह पुरा पणामए, अभिकखे उवहिं धूणित्तए ।
जे दूण तेहिं णो णया, ते जाणंति समाहिमाहियं
छाया - मा प्रेक्षख पुरा प्रणामकान्, अभिकाङ्क्षेद् उपधिं धूनयितुम् । ये दुर्मनसस्तेषु नो नतास्ते जानन्ति समाधिमाख्यातम् ॥
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व्याकरण - (मा) अव्यय (पेह) क्रिया, मध्यम पुरुष ( पुरा ) अव्यय ( पणामए) कर्म (अभिकंखे) क्रिया (उवधिं) कर्म (धूणित्तए) प्रयोजनार्थक क्रिया (जे) सर्वनाम दूमणं का विशेषण (दूमण) अध्याहृत संति क्रिया का कर्ता (तेहिं) अधिकरण (णया) कर्ता का विशेषण (ते) कर्ता का परामर्शक सर्वनाम (जाणंति) क्रिया (आहियं) समाधि का विशेषण ( समाहिं ) कर्म ।
अन्वयार्थ - (पुरा) पहले भोगे हुए ( पणामए) शब्दादि विषयों को ( मा पेह ) मत स्मरण करो ( उवधिं ) माया अथवा आठ प्रकार के कर्मों को (धूणित्तए) नाश करने की (अभिकंखे) इच्छा करो (दुमण) मन को दुष्ट बनानेवाले जो शब्दादि विषय हैं (तेहिं) उनमें (जे) जो (णो णया) आसक्त नहीं हैं (ते) वे पुरुष (आहियं) अपने आत्मा में स्थित ( समाहिं ) राग-द्वेष का त्याग अथवा धर्म ध्यान को (जाति) जानते हैं ।
भावार्थ - पहले भोगे हुए शब्दादि विषयों का स्मरण नहीं करना चाहिए । माया अथवा आठ प्रकार के कर्मों को
1. एत करंति चू. । 2. णायएण महता चू. । 3. सम्यक्त्वमार्गदेशनाऽपरि प्र. । 4. दूवणतिहि चू. ।
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