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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा २५
मानपरित्यागाधिकारः हैं- जैसे चतुर जुआरी जुआ खेलता हुआ एक आदि स्थानों को छोड़कर कृतयुग नामक चतुर्थ स्थान को ही ग्रहण करता है, इसी तरह साधु भी, गृहस्थ, कुप्रावचनिक और पार्श्वस्थ आदि के धर्म को छोड़कर सर्वोत्तम, सर्वमहान् सर्वज्ञ कथित धर्म को स्वीकार करे ॥२४॥
- पुनरप्युदेशान्तरमाह -
- फिर भी सूत्रकार दूसरा उपदेश देने के लिए कहते हैं - उत्तर मणुयाण आहिया, गामधम्मा(म्म) इइ मे अणुस्सुयं । जंसी विरता समुट्ठिया, कासवस्स अणुधम्मचारिणो
॥२५॥ छाया - उत्तराः मनुजानामाख्याताः ग्रामधर्मा इह मयानुश्रुतम् ।
येभ्यो विरताः समुत्थिताः काश्यपस्यानुधर्मचारिणः ॥ व्याकरण - (मणुयाणं) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद (उत्तरा) ग्राम धर्म का विशेषण (गामधम्मा) अभिहित कर्म (आहिया) क्तान्त कर्मवाच्य (इइ) अव्यय (मे) कर्ता (अणुस्सुयं) क्रिया (जंसी) लुप्तल्यबन्त क्रिया का कर्म, पञ्चम्यन्त अथवा सप्तम्यन्त (विरता, समुट्ठिया ये सब अध्याहृत संयमी पुरुष के विशेषण हैं।
अन्वयार्थ - (मे) मैंने (अणुस्सुयं) यह सुना है कि (गामधम्मा) शब्द आदि विषय अथवा मैथुन सेवन (मणुयाणं) मनुष्यों के लिए (उत्तरा) दुर्जेय (अहिया) कहे गये हैं (जंसी विरता) उनसे निवृत्त (समुट्ठिया) तथा संयम में उत्थित पुरुष ही (कासवस्स) काश्यपगोत्री भगवान् ऋषभदेवजी अथवा महावीर स्वामी के (अणुधम्मचारिणो) धर्मानुयायी हैं।
भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी, श्री जम्बूस्वामी आदि शिष्य वर्ग के प्रति कहते हैं कि "शब्द आदि विषय अथवा मैथुन सेवन मनुष्यों के लिए दुर्जेय कहा है" यह मैंने सुना है । उन शब्दादि विषयों और मैथुन सेवन को छोड़कर जो संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्त हैं, वे ही भगवान् महावीर स्वामी अथवा ऋषभदेव स्वामी के धर्म के अनुयायी हैं।
___टीका - उत्तराः प्रधानाः दुर्जयत्वात्, केषाम् ? उपदेशार्हत्वान्मनुष्याणामन्यथा सर्वेषामेवेति, के ते ? ग्रामधर्माः शब्दादिविषयाः मैथुनरूपा वेति, एवं ग्रामधर्मा उत्तरत्वेन सर्वज्ञैराख्याताः, मयैतद्नु-पश्चाच्छुतमेतच्च सर्वमेव प्रागुक्तं यच्च वक्ष्यमाणं तन्नाभेयेनाऽऽदितीर्थकृता पुत्रानुद्दिश्याभिहितं सत् पाश्चात्यगणधराः सुधर्मस्वामिप्रभृतयः स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादयन्ति, अतो मयैतदनुश्रुतमित्यनवद्यम् । यस्मिन्निति कर्मणि ल्यब्लोपे पञ्चमी सप्तमी वेति यान् ग्रामधर्मान्
आश्रित्य ये विरताः पञ्चम्यर्थे वा सप्तमी येभ्यो विरताः सम्यक् संयमरूपेणोत्थिताः समुत्थितास्ते काश्यपस्य ऋषभस्वामिनो वर्धमानस्वामिनो वा सम्बन्धी यो धर्मस्तदनुचारिणः तीर्थङ्करप्रणीतधर्मानुष्ठायिनो भवन्तीत्यर्थः ॥२५।। किञ्च
टीकार्थ - उत्तर नाम प्रधान का है, क्योंकि वह दुर्जेय होता है। किसके लिए ? कहते हैं कि मनुष्यों के लिए, क्योंकि मनुष्य ही उपदेश के योग्य होते हैं। नहीं तो वे सभी के लिए दुर्जेय हैं। वे कौन हैं ? कहते हैं कि ग्रामधर्म । शब्द आदि विषय अथवा मैथुन को ग्रामधर्म कहते हैं। इस प्रकार सर्वज्ञों ने कहा है कि"ग्रामधर्म दुर्जेय होता है" मैंने यह सुना है । यह सब जो पहले कहा है और जो आगे कहा जानेवाला है वह नाभिनन्दन आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजी ने अपने पुत्रों से कहा था। इसके पश्चात् श्रीसुधर्मा स्वामी आदि गणधरों
ष्यों को प्रतिपादन किया था इसलिए यहाँ जो यह कहा है कि- "मैंने यह सुना हैं" सो निर्दोष समझना चाहिए । यहाँ 'यस्मिन्' इस पद में कर्म में ल्यब्लोपे पञ्चमी अथवा सप्तमी है, इसलिए इसका यह अर्थ है कि जो पुरुष इन ग्रामधर्मों के आश्रय से निवृत्त हैं, अथवा यहाँ पंचमी के अर्थ में सप्तमी हुई है । इसलिए इसका अर्थ यह है कि जो पुरुष, इन ग्रामधर्मों से निवृत्त हैं, और सम्यक् प्रकार से संयम के द्वारा उत्थित हैं, वे ही काश्यपगोत्री श्री ऋषभदेव स्वामी अथवा वर्धमान स्वामी के धर्म का आचरण करनेवाले हैं, वे ही तीर्थंकर सम्बंधी धर्म का अनुष्ठान करनेवाले हैं, यह भाव समझना चाहिए ॥२५॥
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