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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १०
हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः व्याकरण - (जइ वि य) अव्यय (णिगणे, किसे) अन्यतीर्थी का विशेषण (चरे) क्रिया (अंतसो) अव्यय (मासं) आक्षिप्त स्थिति क्रिया का कर्म (भुंजिय) क्रिया (जे) सर्वनाम अन्यतीर्थी का बोधक (मायाइ) मान क्रिया का कर्ता (मिज्जई) क्रिया (आगंता) अन्यतीर्थी का विशेषण (गब्भाय) चतुर्थ्यन्त पद (णंतसो) अव्यय ।।
अन्वयार्थ - (जे इह मायाइ मिज्जई) इस लोक में जो पुरुष कषायों से युक्त है, वह (जइ वि य) चाहे (णिगणे किसे चरे) नंगा और
कर विचरे (जइ वि य) चाहे वह (अंतसो) अन्ततः (मासं) एक महीने के पश्चात् (मुंजीय) भोजन करे, परन्तु (णंतसो) वह अनन्त काल तक (गब्माय) गर्भ वास को (आगन्ता) प्राप्त करता है।
भावार्थ - जो पुरुष, कषायों से युक्त है, वह चाहे नङ्गा और कृश होकर विचरे अथवा एक मास के पश्चात् भोजन करे परन्तु वह अनन्त काल तक गर्भ वास को ही प्राप्त करता है ।
टीका - यद्यपि तीर्थिकः कश्चित् तापसादिस्त्यक्तबाह्यगृहवासादिपरिग्रहत्वात् निष्किञ्चनतया नग्नः त्वक्त्राणाभावाच्च कृशः चरेत् स्वकीयप्रव्रज्यानुष्ठानं कुर्यात्, यद्यपि च षष्ठाष्टमदशमद्वादशादितपो विशेषं विधत्ते यावद् अन्तशो मासं स्थित्वा भुङ्क्ते तथापि आन्तरकषायापरित्यागान मुच्यते इति दर्शयति- यः तीर्थिक इह मायादिना मीयते, उपलक्षणार्थत्वात् कषायैर्युक्त इत्येवं परिच्छिद्यते, असौ गर्भाय गर्भार्थमा-समन्तात् गन्ता यास्यति, अनन्तशो निरवधिकं कालमिति, एतदुक्तं भवति-अकिञ्चनोऽपि, तपोनिष्टप्तदेहोऽपि कषायापरित्यागानरकादिस्थानात् तिर्यगादिस्थानं गर्भाद् गर्भमनन्तमपि कालमग्निशर्मवत् संसारे पर्यटतीति ॥९॥
टीकार्थ - यद्यपि कोई परतीर्थी तापस आदि बाह्यपरिग्रह को छोड़कर निष्किञ्चन होते हैं तथा वस्त्रहीन होने के कारण नङ्गा और कृश रहते हुए अपनी प्रव्रज्या का अनुष्ठान करते हैं, तथा वे २,३,४ और ५ भक्त (उपवास) आदि तप करते हुए अन्ततः एक मास के पश्चात् भोजन करते हैं तथापि आन्तरिक कषायों का नाश न होने के कारण वे मोक्ष को नहीं प्राप्त करते हैं, यह शास्त्रकार दिखलाते हैं - इस लोक में जो जीव, माया आदि से युक्त है, यहाँ माया उपलक्षण है, इसलिए जो जीव कषायों से युक्त है, वह अनन्त काल तक गर्भ वास को ही प्राप्त करता है । आशय यह है कि जो जीव, निष्किञ्चन है और तपस्या से तापित शरीर भी है परन्तु वह यदि कषायों का त्याग नहीं करता है तो वह नरक आदि यातना स्थानों से निकलकर तिर्यञ्च आदि योनियों में जाता हुआ बार-बार गर्भ वास को प्राप्त करता है। जैसे अग्निशर्मा को संसार भ्रमण करना पड़ा था, इसी तरह उसको भी संसार भ्रमण करना पड़ता है ॥९।।
- यतो मिथ्यादृष्ट्युपदिष्टतपसाऽपि न दुर्गतिमार्गनिरोधोऽतो मदुक्त एव मार्गे स्थेयमेतद्गर्भमुपदेशं दातुमाह
- मिथ्यादृष्टियों की बतायी हुई तपस्या से भी मनुष्य की दुर्गति नहीं रुक सकती है, इसलिए हमारे द्वारा बताये हुए मार्ग में ही स्थिर रहना चाहिए, यह उपदेश देने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - पुरिसो रम पावकम्मुणा, पलियंतं मणुयाण जीवियं । सन्ना इह काममुच्छिया, मोहं जंति नरा असंवुडा
॥१०॥ छाया - पुरुष | उपरम पापकर्मणा, पर्यन्तं मनुजानां जीवितम् ।
सन्ना इह काममुच्छिताः मोहं यान्ति नरा असंवताः ॥ व्याकरण - (पुरिसो) सम्बोधन (रम) क्रिया (पावकम्मुणा) इत्थंभूत लक्षण तृतीयान्त (मणुयाण) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद (पलियंत) जीवन का विशेषण (जीवियं) अध्याहृत अस्ति क्रिया का कर्ता (सन्ना, काममुच्छिया, असंवुडा) नरके विशेषण (नरा) कर्ता (मोह) कर्म (जंति) क्रिया।
अन्वयार्थ - (पुरिसो) हे पुरुष ! (पावकम्मुणा) जिस पाप कर्म से तूं युक्त है (रम) उससे निवृत्त हो जा (मणुयाण जीवियं) मनुष्यों का जीवन (पलियंत) नाशवान् है (इह) इस मनुष्य भव में या संसार में (सन्ना) जो आसक्त हैं (काममुच्छिया) तथा काम भोग में मुर्छित हैं (असंवुडा) एवं हिंसा आदि पापों से निवृत्त नहीं हैं (नरा) वे वे मनुष्य (मोह) मोह को (जंति) प्राप्त करते हैं।
भावार्थ - हे पुरुष ! तूं पाप कर्म से युक्त है अतः तूं उससे निवृत्त हो जा । मनुष्यों का जीवन नाशवान् है ।