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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशके: गाथा ६
(परुसेहिं) करण (पुट्ठे ) मुनि का विशेषण (अविहण्णू) मुनि का विशेषण ( समयंमि) अधिकरण (रीयइ) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (मुणी) तीन काल का ज्ञाता मुनि (दूरं) मोक्ष को (तहा) तथा (तीतं) व्यतीत और (अणागयं) अनागत (धम्मं) जीवों के स्वभाव को (अणुपस्सिया) देखकर (परुसेर्हि) कठिन वाक्य अथवा लाठी आदि के द्वारा (पुट्ठे) स्पर्श किया जाता हुआ अथवा (अविहण्णू) हनन किया जाता हुआ भी (समयंमि) संयम में ही (रीयई) चले ।
भावार्थ - तीन काल को जाननेवाला मुनि, भूत तथा भविष्यत् प्राणियों के धर्म को तथा मोक्ष को देखकर कठिन वाक्य अथवा दण्ड आदि के द्वारा स्पर्श प्राप्त करता हुआ अथवा मारा जाता हुआ भी संयम मार्ग से ही चलता रहे ।
टीका - दूरवर्त्तित्वात् दूरो- मोक्षस्तमनु-पश्चात् तं दृष्ट्वा यदि वा दूरमिति - दीर्घकालम् 'अनुदृश्य' पर्यालोच्य 'मुनिः' कालत्रयवेत्ता दूरमेव दर्शयति- अतीतं 'धर्मं' स्वभावं - जीवानामुच्चावचस्थानगतिलक्षणं तथा अनागतं च धर्मंस्वभावं पर्यालोच्य लज्जामदौ न विधेयौ, तथा 'स्पृष्टः' छुप्तः 'परुषैः' दण्डकशादिभिर्वाग्भिर्वा 'माहणे 'त्ति मुनिः 'अवि हण्णू’त्ति अपि मार्यमाणः स्कन्दकशिष्यगणवत् 'समये' संयमे 'रीयते' तदुक्तमार्गेण गच्छतीत्यर्थः, पाठान्तरं वा 'समयाऽहियास 'त्ति समतया सहत इति ॥५॥
टीकार्थ - दूरवर्ती होने के कारण यहाँ मोक्ष को 'दूर' कहा है अथवा दीर्घकाल को दूर कहते हैं । अतः त्रिकालदर्शी मुनि मोक्ष को देखकर तथा दूरकाल को सोचकर लज्जा और मद न करे । दूरकाल को सोचना क्या है ? सो ही दर्शाते हैं अतीत यानी बीता हुआ जो धर्म यानी स्वभाव है, वह प्राणियों का ऊँची और नीची गतियों में जाना है तथा भविष्यत् काल का ( पांचो गतियों में जाने का) जो स्वभाव है, इन दोनों को जानकर मुनि लज्जा और मद न करे। तथा लाठी, चाबुक अथवा कठिन वाक्य से स्पर्श पाकर अथवा मारा जाकर भी मुनि, स्कन्दक के शिष्य की तरह शास्त्रोक्त संयम मार्ग से ही विचरे । यहाँ 'समया हियासए' यह पाठान्तर भी मिलता है, इसलिए उक्त मुनिराज समभाव पूर्वोक्त आपत्तियों को सहे यह अर्थ जानना चाहिए ||५||
पुनरप्युपदेशान्तरमाह
सूत्रकार फिर दूसरा उपदेश देते हैं
पण्णसमत्ते सया जए समताधम्ममुदाहरे मुणी ।
सुमे उसया अलूस णो कुज्झे णो माणी माहणे
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मानपरित्यागाधिकारः
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॥६॥
छाया-प्रज्ञासमाप्तः सदा जयेत् समताधर्ममुदाहरेन्मुनिः । सूक्ष्मे तु सदाऽलूषकः नो क्रुध्येझो मानी माहनः ॥ व्याकरण - (पण्णसमत्ते) मुनि का विशेषण (मुणी) कर्ता (सया) अव्यय (जए) क्रिया (समताधम्मं ) कर्म (उदाहरे ) क्रिया (सुहुमे) अधिकरण (अलूसए) मुनि का विशेषण ( कुज्झे) क्रिया (माणी, माहणे) मुनि का विशेषण ।
अन्वयार्थ - (पण्णसमत्ते) पूर्ण बुद्धिमान (मुणी) साधु (सया) सदा (जए) कषायों को जीते (समताधम्मं) तथा समतारूप धर्म का (उदाहरे) उपदेश करे (सुहुमे उ) संयम के विषय में (सया) सदा (अलूसए) अविराधक होकर रहे (णो कुज्झे) तथा क्रोध न करे ( णो माणी माहणो ) एवं साधु मान न करे ।
भावार्थ - बुद्धिमान् मुनि सदा कषायों को जीते एवं समभाव से अहिंसा धर्म का उपदेश करे । संयम की विराधना कभी न करे, एवं क्रोध तथा मान को छोड़ देवे ।
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टीका प्रज्ञायां समाप्तः - प्रज्ञासमाप्तः पटुप्रज्ञः, पाठान्तरं वा 'पण्हसमत्थे' प्रश्नविषये प्रत्युत्तरदानसमर्थः 'सदा' सर्वकालं जयेत्, जेयं कषायादिकमिति शेषः । तथा समया समता तया धर्मम्-अहिंसादिलक्षणम् 'उदाहरेत्' कथयेत् 'मुनिः' यतिः सूक्ष्मे तु-संयमे यत्कर्त्तव्यं तस्य 'अलूषकः' अविराधकः, तथा न हन्यमानो वा पूज्यमानो वा क्रुध्यन्नापि 'मानी' गर्वितः स्यात् 'माहणो' यतिरिति ॥६॥ अपि च -
टीकार्थ
जिसने बुद्धि के विषय में समाप्ति कर दी है अर्थात् जो पूर्ण बुद्धिमान् है । उसे 'प्रज्ञासमाप्त'
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