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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकेः गाथा १३
मानपरित्यागाधिकारः ___ छाया - एकश्वरेत् स्थानमासने, शयन एकः समाहितः स्यात् । भिक्षुरुपधानवीर्यः, वाम्गुप्तोऽध्यात्मसंवृतः ॥
व्याकरण - (वइगुत्ते) (अज्झत्तसंवुडे) (उवहाणवीरिए) ये भिक्षु के विशेषण है (भिक्खू) कर्ता (एगे) भिक्खू का विशेषण (आसणे) (सयणे) अधिकरण (समाहिए) भिक्षु का विशेषण (चरे, सिया) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (वइगुत्ते) वचन गुप्त (अज्झत्तसंवुडे) और मन से गुप्त (उवहाणवीरिए) और तप में बल प्रकट करनेवाला (भिक्खू) साधु (एगे) अकेला (चरे) विचरे तथा (ठाणं) अकेला ही कायोत्सर्ग करे । एवं (आसणे सयणे) आसन तथा शयन आदि भी अकेला ही करता हुआ (समाहिए सिया) धर्मध्यान से युक्त रहे।
भावार्थ - वचन और मन से गुप्त, तप में पराक्रम प्रकट करनेवाला साधु, स्थान आसन और शयन अकेला करता हुआ धर्म ध्यान से युक्त होकर अकेला ही विचरें ।
__टीका - एकोऽसहायो द्रव्यत एकल्लविहारी भावतो रागद्वेषरहितश्चरेत् तथा स्थानं कायोत्सर्गादिकम् एक एव कुर्यात्, तथा आसनेऽपि व्यवस्थितोऽपि रागद्वेषरहित एव तिष्ठेत् एवं शयनेऽप्येकाक्येव समाहितः धर्मादिध्यानयुक्तः स्यात् भवेत् । एतदुक्तं भवति- सर्वास्वप्यवस्थासु चरणस्थानासनशयनरूपासु रागद्वेषविरहात् समाहित एव स्यादिति। तथा भिक्षणशीलो भिक्षुः 'उपधानं' तपस्तत्र वीर्य्य यस्य स उपधानवीर्य्य:- तपस्यनिगूहितबलवीर्य इत्यर्थः । तथा वाग्गुप्तः सुप-लोचिताभिधायी 'अध्यात्म' मनस्तेन संवृतो भिक्षुर्भवेदिति ॥१२॥ किञ्च -
टीकार्थ- साधु पुरुष द्रव्य से अकेला और भाव से राग-द्वेष रहित होकर विचरे । वह अकेला ही कायोत्सर्ग आदि भी करे । वह आसन पर बैठा हुआ भी राग-द्वेष रहित होकर ही रहे । एवं शयन में भी अकेला ही धर्म ध्यानादि से युक्त होकर रहे । आशय यह है कि - भिक्षण शील साधु, चलना, बैठना, स्थित होना और शयन करना आदि सभी अवस्थाओं में राग-द्वेष वर्जित होकर धर्मध्यान से युक्त होकर रहे । एवं वह तप करने में अपना पराक्रम खूब प्रकट करे वह विचारकर वाक्य बोले और मन से गुप्त रहे ॥१२॥ [मुख्यता से यहां से वर्णन जिन कल्पि मुनियों के लिए है ।।
णो पीहे ण यावपंगुणे, दारं सुन्नघरस्स संजए । पुढे ण उदाहरे वयं, उण समुच्छे णो संथरे तणं
॥१३॥ छाया-नो पिदध्यात यावत् प्रगुणयेद् द्वारं शून्यगृहस्य भिक्षुः । पृष्टो नोदाहरेद्वाचं न समुच्छिब्यानो संस्तरेत्तृणम् ॥
व्याकरण - (णो) अव्यय (पीहे पंगुणे) क्रिया (सुन्नघरस्स) सम्बन्धषष्ठ्यन्तपद (दारं) कर्म (संजए) कर्ता (पुढे) साधु का विशेषण (वयं) कर्म (उदाहरे) क्रिया (समुच्छे, संथरे) क्रिया (तणं) कर्म ।
अन्वयार्थ - (संजए) साधु (सुत्रधरस्स) शून्य गृह का (दार) दरवाजा (णो पीहे) बन्द न करे (ण याव पंगुणे) न खोले (पुढे) किसी से पूछा हुआ (वयं) वचन (ण उदाहरे) न बोले (ण समुच्छे) उस मकान का कचरा न निकाले (तणं) तथा तृण भी (ण संथरे) न बिछावे।
भावार्थ - साधु, शून्य गृह का द्वार न खोले और नहीं बन्द करे । किसी के पूछने पर कुछ न बोले तथा उस घर का कचरा न निकाले और तण भी न बिछावे ।
टीका - केनचिच्छयनादिनिमित्तेन शून्यगृहमाश्रितो भिक्षुः तस्य गृहस्य द्वारं कपाटादिना न स्थगयेन्नापि तच्चालयेत्, यावत् 'न यावपंगुणे'त्ति, 'नोद्घाटयेत्' तत्रस्थोऽन्यत्र वा केनचिद्धर्मादिकं मार्ग वा पृष्टः सन् सावधां वाचं नोदाहरेन ब्रूयात् । आभिग्रहिको जिनकल्पिकादिनिरवद्यामपि न ब्रूयात्, तथा न समुच्छिन्द्यात् तृणानि कचवरं च प्रमार्जनेन नापनयेत्, नाऽपि शयनार्थी कश्चिदाभिग्रहिकः तृणादिकं संस्तरेत् तृणैरपि संस्तारकं न कुर्यात् किं पुनः कम्बलादिना ? अन्यो वा शुषिरतृणं न संस्तरेदिति ॥१३।।।
टीकार्थ - साधु, शयन आदि किसी कारण वश यदि शून्य गृह का आश्रय लेवे तो उस गृह के द्वार को 1. प्राकृते स्वार्थे ल्लप्रत्ययागमे एकल्ल इति जाते प्रसिद्धत्वाद्नुकरणमेतत् । 2. प्राक्तनोऽपिः शयनादिसमुच्चयाय अयं तूर्ध्वस्थानादिसमुच्चयाय । 3. ण समुच्छति णो संथडे तणे चू. ।
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