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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा १६
मानपरित्यागाधिकारः रोमादिकमपि न हर्षयेत् शून्यागारगतो महामुनिः । व्याकरण - (तिरिया, मणुया, दिव्वगा, तिविहा) ये उपसर्ग के विशेषण हैं (उवसग्गा) कर्म (हियासिया) क्रिया (सुन्नागारगओ) महामुनि का विशेषण (महामुणी) कर्ता (लोमादीयं) कर्म (ण) अव्यय (हारिसे) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (सुन्नागारगओ) शून्य गृह में गया हुआ (महामुणी) महामुनि (तिरिया) तिर्यच सम्बन्धी (मणुया) मनुष्य सम्बन्धी (दिव्वगा) तथा देवजनित (तिविहा) त्रिविध (उवसग्गा) उपसर्गों को (अहियासिया) सहन करे (लोमादीयं) भय से अपने रोम आदि को भी (ण हारिसे) हर्षित न करे।
भावार्थ - शून्य गृह में गया हुआ महामुनि तिर्यश्च मनुष्य तथा देवता सम्बन्धी उपसर्गों को सहन करे । भय से अपने रोम को भी हर्षित न करे ।
टीका - तैरश्चाः सिंहव्याघ्रादिकृताः तथा मानुषा अनुकूलप्रतिकूलाः सत्कारपुरस्कारदण्डकशाताडनादिजनिताः तथा दिव्वगा इति व्यन्तरादिना हास्यप्रद्वेषादिजनिताः, एवं त्रिविधानप्युपसर्गान् अधिसहेत, नोपसर्गेर्विकारं गच्छेत्, तदेव दर्शयति-लोमादिकमपि न हर्षयेद् भयेन रोमोद्गममपि न कुर्यात्, यदि वा एवमुपसर्गास्त्रिविधा अपि 'अहियासिय'त्ति अधिसोढाः भवन्ति यदि रोमोद्मादिकमपि न कुर्यात् । आदिग्रहणात् दृष्टिमुखविकारादिपरिग्रहः, शून्यागारगतः शून्यगृहव्यवस्थितस्य चोपलक्षणार्थत्वात
चापलक्षणार्थत्वात् पितृवनादिस्थितो वा महामुनिर्जिनकल्पिकादिरिति ।।१५।। किञ्चटीकार्थ - तैरश्च यानी सिंह, व्याघ्र आदि तिर्यक् प्राणियों से किया हुआ तथा मानुषा यानी मनुष्यों से किया हुआ सत्कार, पुरस्कार और डंडा तथा चाबुक से ताड़न आदि अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसर्ग एवं व्यन्तर आदि देवताओं से किया हुआ हास्य और प्रद्वेष आदि से उत्पन्न उपसर्ग, इन तीन प्रकार के उपसर्गों को साधु निर्विकार भाव से सहन करे, इनके द्वारा विकार को प्राप्त न हो । यही दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं कि- "लोमादिक" इत्यादि । अर्थात् साधु उक्त उपसर्गों के भय से अपना रोम भी कम्पित न करे अथवा इसी प्रकार साधु उक्त त्रिविध उपसर्गों को सह सकता है, यदि उनके होने पर वह अपना रोम भी कम्पित न करे । यहाँ आदि शब्द से उक्त तिर्यश्च आदि का विकृत देखना और विकृत मुख आदि का ग्रहण है । तथा शून्य गृह में स्थित रहना यहाँ उपलक्षण मात्र है, इसलिए श्मशान आदि भयंकर स्थानों में रहे हुए जिनकल्पी आदि मुनि के विषय में भी यही बात जाननी चाहिए । यहाँ जिनकल्पी आदि महामुनि कहे गये हैं, स्थविरकल्पी नहीं ॥१५।।
1णो अभिकंखेज्ज जीवियं, नोऽवि य पूयणपत्थए सिया । अब्भत्थमुर्विति भेरवा सुन्नागारगयस्स भिक्खुणो
॥१६॥ छाया - नाभिकाक्षेत जीवितं नाऽपि च पूजनप्रार्थकः स्यात् ।
अभ्यस्ता उपयन्ति भैरवाः शून्यागारगतस्य भिक्षोः ॥ व्याकरण - (णो) अव्यय (अभिकंखेज्ज) क्रिया (जीवियं) कर्म (पूयणपत्थए) मुनि का विशेषण (सिया) क्रिया (भेरवा) कर्ता (अब्मत्थं) कर्म (उर्विति) क्रिया (सुन्नागारगयस्स) भिक्षु का विशेषण (भिक्खुणो) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद ।
अन्वयार्थ - (णो) नहीं (जीवियं) जीवन की (अभिकंखेज्ज) इच्छा करे (नोविय) और न (पूयणपत्थए सिया) पूजा का प्रार्थी बने (सुन्नागारगयस्स) शून्य गृह में गये हुए (भिक्खुणो) साधु को (भेरवा) भैरव यानी भयंकर प्राणी (अब्भत्थं) अभ्यस्त (उविंति) हो जाते हैं।
भावार्थ - उक्त उपसों से पीड़ित होकर साधु जीवन की इच्छा न करे तथा पूजा, मान बड़ाई की भी प्रार्थना न करे । इस प्रकार पूजा और जीवन से निरपेक्ष होकर शून्य गृह में जो साधु निवास करता है, उसको भैरवादिकृत उपसर्ग सहन का अभ्यास हो जाता है ।
टीका - स तैर्भेरवैरुपसर्गेरुदीर्णेस्तोतुद्यमानोऽपि जीवितं नाभिकाङ्क्षत, जीवितनिरपेक्षेणोपसर्गः सोढव्य इति भावः, न चोपसर्गसहनद्वारेण पूजाप्रार्थकः प्रकर्षाभिलाषी स्यात् भवेत्, एवं च जीवितपूजानिरपेक्षेणासकृत् सम्यक् सह्यमाणा भैरवाः-भयानकाः शिवापिशाचादयोऽभ्यस्तभावं-स्वात्मतामुप-सामीप्येन यान्ति-गच्छन्ति तत्सहनाच्च भिक्षोः 1. णो जावऽभिकंख जीवितं चू. ।
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