________________
सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा १२
छाया - महान्तं परिगोपं ज्ञात्वा, याऽपि च वन्दनपूजनेह । सूक्ष्मे शल्ये दुरुद्धरे, विद्वान् परिजह्यात् संस्तवम् ॥
व्याकरण - (महयं) परिगोप का विशेषण (पलिगोव) कर्म (जाणिया) पूर्वकालिक क्रिया (जा) सर्वनाम, वन्दन पूजन का विशेषण (अवि ) (य) अव्यय ( इह ) अव्यय (वंदन पूयणा) अध्याहृत अस्ति क्रिया का कर्ता (विउमंता) कर्ता (सुहुमे) शल्य का विशेषण (दुरुद्धरे) शल्य का विशेषण (सल्ले) अध्याहृत अस्ति क्रिया का कर्ता (संथवं ) कर्म (पयहिज्ज) क्रिया ।
मानपरित्यागाधिकारः
अन्वयार्थ - (महयं) सांसारिक जीवों का परिचय महान् (पलिगोव) पंक है (जाणिया) यह जानकर (जावि य) तथा जो ( इह ) इस लोक मैं (वंदन पूयणा) वन्दन और पूजन है, उसे भी कर्म के उपशम का फल जानकर ( विउमंता ) विद्वान् पुरुष गर्व न करे, क्योंकि गर्व, (सुहुमे) सूक्ष्म (सल्ले) शल्य है (दुरुद्धरे) उसका उद्धार करना कठिन हैं ( संथवं ) अतः परिचय को ( पयहिज्ज ) त्याग देवे ।
भावार्थ - सांसारिक जीवों के साथ परिचय महान् कीचड़ है, यह जानकर मुनि उनके साथ परिचय न करे तथा वन्दन और पूजन भी कर्म के उपशम का फल है, यह जानकर मुनि वन्दन, पूजन पाकर गर्व न लावे, क्योंकि गर्व सूक्ष्म शल्य है, उसका उद्धार करना कठिन होता है ।
टीका - 'महान्तं संसारिणां दुस्त्यजत्वान्महता वा संरम्भेण परिगोपणं 'परिगोप:' द्रव्यतः पङ्कादिः भावतोऽभिष्वङ्गः तं 'ज्ञात्वा' स्वरूपतः तद्विपाकतो वा परिच्छिद्य याऽपि च प्रव्रजितस्य सतो राजादिभिः कायादिभिर्वन्दना वस्त्रपात्रा - दिभिश्च पूजना तां च 'इह' अस्मिन् लोके मौनीन्द्रे वा शासने व्यवस्थितेन कर्मोपशमजं फलमित्येवं परिज्ञायोत्सेको न विधेयः, किमिति ? यतो गर्वात्मकमेतत्सूक्ष्मं शल्यं वर्त्तते, सूक्ष्मत्वाच्च 'दुरुद्धरं' दुःखेनोद्धर्तुं शक्यते, अतः 'विद्वान्' सदसद्विवेकज्ञस्तत्तावत् ‘संस्तवं' परिचयमभिष्वङ्गं 'परिजह्यात्' परित्यजेदिति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति
"2 पलिमंथ महं वियाणिया, जाऽवि य वंदणपूयणा इह । सुहुमं सल्लं दुरुद्धरं तं पि जिणे एरण पंडिए " ||१|| अस्य चायमर्थ:- साधोः स्वाध्यायध्यानपरस्यैकान्तनिःस्पृहस्य योऽपि चायं परैः वन्दनापूजनादिकः सत्कारः क्रियते असावपि सदनुष्ठानस्य सद्गतेर्वा महान् पलिमन्थो विघ्नः, आस्तां तावच्छब्दादिष्वभिष्वङ्गः, तमित्येवं परिज्ञाय तथा सूक्ष्मशल्यं दुरुद्धरं च अतस्तमपि 'जयेद्' अपनयेत् पण्डितः 'एतेन' वक्ष्यमाणेनेति ॥११॥
-
टीकार्थ संसारी जीव के लिए परिचय छोड़ना कठिन है, इसलिए परिचय को यहाँ महान् कहा है । अथवा महान् संरंभ अर्थ में यहाँ महत् शब्द आया है। जो प्राणियों को अपने में फँसा लेता है उसे 'परिगोप' कहते हैं । वह परिगोप दो प्रकार का है एक द्रव्य परिगोप और दूसरा भाव 'परिगोप' । द्रव्य परिगोप पंक (कीचड़ ) को कहते हैं और संसारी प्राणियों के साथ परिचय या आसक्ति भावपरिगोप है । इसका स्वरूप और विपाक को जानकर मुनि इसे त्याग देवे । तथा प्रव्रज्या धारण किये हुए मुनि की जो राजा महाराजा आदि, शरीर से वन्दना और वस्त्रपात्र आदि के द्वारा पूजा करते हैं, उसका इसलोक में अथवा जैनेन्द्र शासन में स्थित मुनि, कर्म के उपशम का फल जानकर गर्व न करे । क्यों गर्व न करे ? क्योंकि यह गर्व, प्राणियों के हृदय का सूक्ष्म शल्य है और सूक्ष्म होने के कारण यह दुःख से उद्धार किया जाता है। अतः सत् और असत् का विवेक रखनेवाला मुनि परिचय और गर्व न करे । इस गाथा के स्थान में नागार्जुनीय "पलिमंथ" इत्यादि गाथा पढ़ते हैं । इसका अर्थ यह है कि स्वाध्याय और ध्यान में तत्पर, एकान्त निःस्पृह विवेकी पुरुष दूसरे लोगों से किये हुए वन्दन, पूजन आदि सत्कार को सत् अनुष्ठान और सद्गति का महान् विघ्न जानकर उसे छोड़ देवे । जब कि वन्दन, पूजन आदि भी सत् अनुष्ठान या सद्गति में विघ्न रूप है, तब फिर शब्दादि विषयों में आसक्ति की बात ही क्या है, अतः बुद्धिमान् पुरुष आगे कहे जानेवाले उपाय से उस दुरुद्धर सूक्ष्म शल्य को निकाल दे ॥११॥
एगे चरे (र) ठाणमासणे, सयणे एगे (ग) उसमाहिए सिया । भिक्खू उवहाणवीरिए वइगुत्ते अज्झत्तसंवुडो
।।१२।।
1. आस्तां तावत् प्र. त तावत प्र. । 2. पलिमन्थं (विघ्नं ) महान्तं विज्ञाय याऽपि च वन्दनापूजनेह । सूक्ष्मं शल्यं दुरुद्धरं, तदपि जयेदेतेन पण्डितः। 3. समाहितो चरे चू. I
१४३