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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा ९
हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः छाया - अथ पश्य विवेकमुत्थितोऽवितीर्ण इह भाषते ध्रुवम् । हास्यस्यारं कुतः परं विहायसि कर्मभिः कृत्यते ॥
व्याकरण - (अह) अव्यय (पास) क्रिया, मध्यम पुरुष (विवेगं) आक्षिप्त आश्रयणक्रिया का कर्म (उट्ठिए) (अवितिन्ने) आक्षिप्त परतीर्थी के विशेषण (इह) अव्यय (भासई) क्रिया (धुवं) कर्म (णाहिसि) क्रिया, मध्यम पुरुष (आर) कर्म (कओ) अव्यय (परं) कर्म (वेहासे) अधिकरण (कम्मेहिं) कर्तृ तृतीयान्त (किच्चती) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (अह) इसके पश्चात् (पास) देखो कि (विवेग) कोई अन्यतीर्थी परिग्रह को छोड़कर अथवा संसार को अनित्य जानकर (उट्ठिए) प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं (अवितिन्ने) परन्तु वे संसार सागर को पार नहीं कर सकते हैं (इह) वे इस लोक में (धुवं) मोक्ष का (भासई) भाषण मात्र करते हैं । हे शिष्य ! तुम भी उनके मार्ग में जाकर (आरं) इस लोक को (पर) तथा परलोक को (कओ) कैसे (णाहिसि) जान सकते हो ? वे अन्यतीर्थी (वेहासे) मध्य में ही (कम्मेहिं) कर्मों के द्वारा (किच्चती) पीड़ित किये जाते हैं ।
भावार्थ- हे शिष्य ! इसके पश्चात् यह देखो कि कोई अन्यतीर्थी परिग्रह को छोड़कर अथवा संसार को अनित्य जानकर प्रव्रज्या ग्रहण करके मोक्ष के लिए उद्यत होते हैं, परन्तु अच्छी तरह संयम का अनुष्ठान नहीं कर सकने के कारण वे संसार को पार नहीं कर सकते हैं । हे शिष्य ! तुम उनका आश्रय लेकर इसलोक तथा परलोक को कैसे जान सकते हो? वे अन्यतीर्थी उभय भ्रष्ट होकर मध्य में ही कर्म के द्वारा पीड़ित किये जाते है ।
टीका - अथेत्यधिकारान्तरे, बाहादेशे एकादेशे इति । अथेत्यनन्तरमेतच्च पश्य, कश्चित्तीर्थिको विवेकं परित्यागं परिग्रहस्य परिज्ञानं वा संसारस्याऽऽश्रित्य उत्थितः प्रव्रज्योत्थानेन, स च सम्यक् परिज्ञानाभावादवितीर्णः संसारसमुद्रं तितीर्घः, केवलमिह संसारे प्रस्तावे वा शाश्वतत्वात् ध्रुवो मोक्षस्तं तदुपायं वा संयम भाषत एव न पुन
त्परिजानाभावादिति भावः । तन्मार्गे प्रपन्नस्त्वमपि कथं जास्यसि आरम इह भवं कतो वा परं परलोकं. यदि वा आरमिति गृहस्थत्वं परमिति प्रव्रज्यापर्य्यायम्, अथवा आरमिति संसारं परमिति मोक्षं, एवंभूतश्चाऽन्योऽप्युभयभ्रष्टः, 'वेहासि' त्ति अन्तराले उभयाभावतः स्वकृतैः कर्मभिः कृत्यते पीडयते इति ॥८॥
टीकार्थ - यहाँ 'अथ' शब्द, दूसरा अधिकार, बहुतों को आदेश, तथा एक को आदेश इन अर्थों में आया है । हे शिष्य ! इसके पश्चात् यह देखो कि कोई अन्यतीर्थी परिग्रह को छोड़कर अथवा संसार को अनित्य जानकर प्रव्रज्या ग्रहण कर के मोक्ष के लिए उद्यत होते हैं, वे संसार को पार करना चाहते हुए भी सम्यग् ज्ञान न होने के कारण उसे पार नहीं कर पाते हैं । वे लोग इस जगत् में अथवा इस प्रसङ्ग में मोक्ष को अथवा उसके उपाय रूप संयम का भाषण मात्र करते हैं, परन्तु उनका अनुष्ठान नहीं करते हैं, क्योंकि उनको अनुष्ठान का ज्ञान नहीं है । हे शिष्य ! भी उनके मार्ग से जाता हुआ किस प्रकार 'आरम्' अर्थात् इस लोक को तथा (पारं) यानी परलोक को जान सकता है ? अथवा 'आरम्' यानी गृहस्थ के धर्म को और 'पारम्' अर्थात् प्रव्रज्या के पर्याय को तूं किस तरह जान सकता है ? अथवा 'आरम्' अर्थात् संसार को और पारं यानी मोक्ष को तूं कैसे जान सकता है ? अतः जो पुरुष इन अन्य तीर्थियों के मार्ग से चलता है, वह उभय भ्रष्ट होकर मध्य में ही कर्मों के द्वारा पीड़ित किया जाता है ॥८॥
- ननु च तीर्थिका अपि केचन निष्परिग्रहास्तथा तपसा निष्टप्तदेहाश्च, तत्कथं तेषां नो मोक्षावाप्तिरित्येतदाशक्याह -
- कोई परतीर्थिक भी परिग्रह रहित और तपस्या से तापित शरीरवाले होते हैं फिर उन्हें मोक्ष की प्राप्ति क्यों नहीं होगी ? यह शङ्का कर के शास्त्रकार कहते हैं - जइ वि य णगिणे किसे चरे, जइ वि य भुंजिय मासमंतसो। जे इह मायाइ मिज्जई, आगंता गब्भाय णंतसो
॥९॥ छाया - यद्यपि च नमः कृशश्चरेद्, यद्यपि च भुञ्जीत मासमन्तशः ।
य इह मायादिना मीयते, आगन्ता गर्भायानन्तशः ॥
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