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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १३
हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः - पुनरप्युपदेशान्तरमाह -
- फिर से दूसरा उपदेश देते हैणवि ता अहमेव लुप्पए, लुप्पंति लोअंसि पाणिणो । एवं सहिएहिं पासए', अणिहे से पुढे अहियासए
॥१३॥ छाया - नाऽपि तैरहमेव लुप्ये, लुप्यन्ते लोके प्राणिनः । एवं सहितः पश्येत् अनिहः स स्पृष्टोऽधिसहेत ।।
व्याकरण - (ण अवि) अव्यय (ता) कर्ता (अहं) तिङ्प्रत्यय द्वारा उक्त कर्म (एव) अव्यय (लुप्पए) क्रिया, कर्मवाच्य उत्तम पुरुष (लुप्पंति) क्रिया (लोअंसि) अधिकरण (पाणिणो) कर्ता (एव) अव्यय (सहिए) मुनि का विशेषण (पासए) क्रिया (अणिहे, से, पुढे) मुनि के विशेषण ( अहियासए) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (सहिए) ज्ञानादिसम्पन्न पुरुष (एवं) इस प्रकार (पासए) देखे कि- (अहमेव) में ही (ता) उन शीत, उष्ण आदि के द्वारा (णवि लुप्पए) पीड़ित नहीं किया जाता हूँ किन्तु (लोअंसि) परीषहों से स्पर्श पाया हुआ मुनि (अणिहे) क्रोधादि रहित होकर (अहियासए) उनको
सहे।
भावार्थ - ज्ञानादिसम्पन्न पुरुष यह सोचे कि शीत और उष्णादि परीषहों से मैं ही नहीं पीड़ित किया जाता हूँ किन्तु लोक में दूसरे प्राणी भी पीड़ित किये जाते हैं। अतः शीत, उष्णादि परीषहों को क्रोधादि रहित होकर सहन करना चाहिए।
टीका - परीषहोपसर्गा एतद्भावनापरेण सोढव्याः, नाहमेवैकस्तावदिह शीतोष्णादिदुःखविशेषैलृप्ये पीड्ये अपि त्वन्येऽपि प्राणिनः तथाविधास्तिर्य्यङ्मनुष्याः अस्मिंल्लोके लुप्यन्ते अतिदुःसहैर्दुःखैः परिताप्यन्ते, तेषां च सम्यग्विवेकाभावान्न निर्जराख्यफलमस्ति, यतः“क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं व्यक्तं न सन्तोषतः, सोढाः दुःसहशीततापपवनक्लेशाः न तप्तं तपः।
ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितं द्वन्दै [नियमितप्राण] र्न तत्वं पर,
तत्तत्कर्म क्रतं सुखार्थिभिरहो तैस्तैः फलैर्वशिताः?" ||१|| तदेवं क्लेशादिसहनं सद्विवेकिनां संयमाभ्युपगमे सति गुणायैवेति, तथाहि“कायें क्षुत्प्रभवं कदल्लमशनं शीतोष्णयोः पात्रता, पारुष्यं च शिरोमहेषु शयनं मह्यास्तले कैवले। एतान्येव गृहे वहन्यवनतिं तान्युलतिं संयमे, दोषाचाऽपि गुणाः भवन्ति हि नृणां, योग्ये पदे योजिता"||२||
एवं सहितो ज्ञानादिभिः स्वहितो वा आत्महितः सन् पश्येत् कुशाग्रीयया बुद्धया प-लोचयेदनन्तरोदितं, तथा निहन्यत इति निहः न निहोऽनिहः क्रोधादिभिरपीडितः सन् स महासत्त्वः परीषहैः स्पृष्टोऽपि तान् अधिसहेत मनःपीडां न विदध्यादिति. यदिवा अनिह इति तपःसंयमे परीषहसहने चानिगहितबलवीर्यः शेषं पर्ववदिति ॥१३॥ अपि च
टीकार्थ - बुद्धिमान् पुरुष यह सोचकर परीषह और उपसर्गों को सहे कि शीत, उष्ण आदि के द्वारा एकमात्र मैं ही पीड़ित नहीं किया जाता अपितु इस जगत् में दूसरे तिर्यञ्च और मनुष्य आदि प्राणी भी पीड़ित किये जाते हैं। उन प्राणियों को सम्यग विवेक नहीं है इसलिए कष्ट सहकर भी वे निर्जरा रूप फल को नहीं प्राप्त कर सकते हैं । अत एव किसी विवेकी पुरुष की उक्ति है कि
(क्षान्तम्) मैंने शीत, उष्णादि कृत दुःखों को सहन तो किया परन्तु क्षमा के कारण नहीं अपितु अशक्ति वश सहन किया । मैंने गृहसुख का त्याग तो किया परन्तु सन्तोष के कारण नहीं किन्तु अप्राप्ति के कारण । मैंने शीत, उष्ण और पवन के दुःसह दुःख सहे परन्तु तप नहीं किया ।
मैंने दिन रात धन का चिन्तन किया परन्तु निर्द्वन्द्व होकर परम तत्त्व का चिन्तन नहीं किया, मैंने सुख प्राप्ति के लिए वे सभी कर्म किये, जो तपस्वी मुनिराज करते हैं, परन्तु उनका फल मुझ को कुछ नहीं मिला । अत: 1. सहिते ऽधिपासए चू. । 2. अधिकं पृथग्जनान् पश्यतीति चू. ।
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