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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १५-१६ हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः सउणी जह पंसुगुंडिया, विहुणिय धंसयई सियं रयं । एवं दविओवहाणवं, कम्मं खवइ तवस्सिमाहणे
॥१५॥ छाया - शकुनिका यथा पांसुगुण्ठिता, विधूय ध्वंसयति सितं रजः ।
एवं द्रव्य उपथानवान् कर्म क्षपयति तपस्वी माहनः ॥ व्याकरण - (सउणी) उपमान कर्ता (जह) अव्यय (पंसुगुंडिया) सउणी का विशेषण (विहुणिय) पूर्वकालिक क्रिया (धंसयई) क्रिया (सियं) रज का विशेषण (रयं) कर्म (एवं) अव्यय (दवि, ओवहाणवं, तवस्सि) ये सब माहन के विशेषण हैं (माहणे) कर्ता (कम्म) कर्म (खवइ) क्रिया।
अन्वयार्थ - (जह) जैसे (पंसुगुंडिया) धूलि से भरी हुई (सउणी) पक्षिणी (विहुणिय) अपने शरीर को कैंपाकर (सियं रयं) शरीर में लगी हुई धूलि को (धंसयई) गिरा देती है (एवं) इसी तरह (दवि) भव्य (ओवहाणवं) अनशन आदि तप करने वाला (तवस्सि) तपस्वी (माहणे) अहिंसाव्रती पुरुष (कम्म) कर्म को (खवइ) नाश करता है।
भावार्थ - जैसे पक्षिणी अपने शरीर में लगी हुई धूलि को शरीर झाड़कर गिरा देती है, इसी तरह अनशन आदि तप करने वाला अहिंसाव्रती भव्य पुरुष अपने कर्मों का नाश कर देता है ।
टीका - शकुनिका पक्षिणी यथा पांसुना रजसा अवगुण्ठिता खचिता सती अङ्गं विधूय कम्पयित्वा तद्रजः सितमवबद्धं सत् ध्वंसयति अपनयति, एवं द्रव्यो भव्यो मुक्तिगमनयोग्यो मोक्षं प्रत्युपसामीप्येन दधातीत्युपधानमनशनादिकं तपः तदस्यास्तीत्युपधानवान् स चैवंभूतः कर्म ज्ञानावरणादिकं क्षपयति अपनयति तपस्वी साधुः 'माहण'त्ति मा वधीरिति प्रवृत्तिर्यस्य स प्राकृतशैल्या माहणेत्युच्यते ॥१५॥
टीकार्थ - शकुनिका, पक्षिणी का नाम है । जैसे धूलि से भरी हुई पक्षिणी अपने अङ्ग को हिलाकर शरीर में लगी हुई धूलि को गिरा देती है, इसी तरह अहिंसा धर्म का पालन करने वाला, मुक्तिगमन योग्य, उपधान यानी अनशन आदि तप करने वाला साधु, ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को नाश कर देता है । जो मोक्ष के पास जीव को स्थापित करता है, ऐसे तप को 'उपधान' कहते हैं, वह अनशन आदि है । प्राणियों की हिंसा मत करो, ऐसी जिसकी प्रवृत्ति है, उनको 'माहन' कहते हैं परन्तु यहाँ प्राकृत की शैली से 'माहण' कहा है ॥१५।।
- अनुकूलोपसर्गमाह -
- अब शास्त्रकार अनुकूल उपसर्ग बतलाते हैं - उट्ठियमणगारमेसणं, समणं ठाणठिअंतवस्सिणं। डहरा वुड्डा य पत्थए, अवि सुस्से ण य तं लभेज्ज णो
॥१६॥ छाया - उत्थितमनगारमेषणां श्रमणं स्थानस्थितं तपस्विनम् ।
डहराः वृद्धाश्च प्रार्थयेयुरपि शुष्येयुर्न च तं लभेयुः ।। व्याकरण - (उट्ठियं) (अणगारं) (ठाणाट्ठिय) (तवस्सिणं) ये सब श्रमण के विशेषण हैं (समणं) कर्म (डहरा, वुहा) कर्ता (य) अव्यय (पत्थए) क्रिया (अवि) अव्यय (सुस्से) क्रिया (ण य) अव्यय (तं) कर्म (लभेज्ज) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (अणगार) गृह रहित (एसणं) और एषणा का पालन करने के लिए (उट्ठिय) तत्पर (ठाणट्ठिय) तथा संयम स्थान में स्थित (तवस्सिणं) तपस्वी (समणं) श्रमण को (डहरा) उसके लड़के (बुड्डा य) और उसके माता-पिता आदि वृद्ध (पत्थए) प्रव्रज्या छोड़ देने के लिए चाहे प्रार्थना करें (अवि सुस्से) और प्रार्थना करते-करते वे थक जायें (तं) परन्तु वे उस साधु को (णो लभेज्ज) अपने अधीन नहीं कर सकते ।
भावार्थ - गह रहित और एषणा के पालन में तत्पर संयमधारी तपस्वी साध के निकट आकर उनके बेटे पोते तथा माता-पिता आदि प्रव्रज्या छोड़कर घर चलने की भले ही प्रार्थना करें और प्रार्थना करते-करते वे थक जायँ परन्तु वस्त तत्त्व को जानने वाले मुनि को वे अपने अधीन नहीं कर सकते हैं।
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