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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १८-१९ हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः
___टीकार्थ - साधु के माता-पिता, पुत्र और स्त्री आदि, साधु के निकट आकर यदि करुणामय वचन बोलें अथवा रोदन करें या करुणामय कार्य करें. जैसे कि
साधु की छी, साधु से कहे कि हे नाथ ! हे प्रिय ! हे कान्त ! हे स्वामिन् ! हे अति प्रिय! तुम घर में दुर्लभ हो गये हो, हे निष्कृप | तुम्हारे बिना मुझ को सब कुछ शून्य-सा प्रतीत होता है । हे उत्तम पुरुष ! तुम जिस श्रेणि में, जिस ग्राम में, जिस गोष्ठी में या जिस गण में रहते हो वे सब तुम्हारी शोभा सें प्रकाशित हो जाते हैं फिर अपना घर तुम से प्रकाशित हो इसमें आश्चर्य ही क्या हैं ?
तथा वे पुत्र के लिए रोदन करते हुए कहें कि- "हे उत्तम पुरुष ! अपने कुल की वृद्धि के लिए एक पुत्र, उत्पन्न करके पीछे तूं संयम का पालन करना ।" इस प्रकार कहते हुए वे परिवार वर्ग, मुक्तिगमन योग्य तथा संयम पालन करने में निपुण उत्तम साधु को प्रव्रज्या से भ्रष्ट या भाव से पतित नहीं कर सकते हैं । एवं वे उसे गृहस्थ बनाकर द्रव्यलिङ्ग से भी भ्रष्ट नहीं कर सकते हैं ॥१७॥
जइ वि य कामेहि लाविया, जइ णेज्जाहि ण बंधिउं घरं । जइ जीवियं नावकंखए, णो लब्भंति ण संठवित्तए
॥१८॥ छाया - यद्यपि च कामावयेयुः यदि नयेयुर्बन्धा गृहम् । यदि नीवितं नावकाइक्षेत् नो लभन्ते न संस्थापयितुम् ॥
व्याकरण - (जइ वि) अव्यय (य) अव्यय (कामेहि) करण (लाविया) क्रिया (जइ) अव्यय (णेज्जाहि) क्रिया (बंधिउं) क्रिया (घरं) कर्म (जीवियं) कर्म (न) अव्यय (अवकंखए) क्रिया (णो) अव्यय (लब्मंति) (संठवित्तए) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (जइविय) चाहे परिवारवाले (कामेहि लाविया) साधु को काम भोग का प्रलोभन दें (जइ बंधिउं) अथवा बाँधकर (घर) घर पर (णेज्जाहि) ले जायें (जइ) परन्तु यदि (जीवियं नावकंखए) वह साधु असंयम जीवन को नहीं चाहता है, तो (णो लब्मंति) वे उसे अपने वश में नहीं कर सकते हैं (ण संठवित्तए) और न उसे गृहस्थ भाव में ही रख सकते हैं।
भावार्थ - साधु के सम्बन्धी जन यदि साधु को विषय भोग का प्रलोभन दें अथवा वे साधु को बाँधकर घर ले जायँ, परन्तु वह साधु यदि असंयम जीवन की इच्छा नहीं करता है तो वे उसे अपने वश में नहीं कर सकते अथवा उसे वे गृहस्थ भाव में नहीं स्थापन कर सकते ।
टीका - 'जइवि' इत्यादि, यद्यपि ते निजास्तं साधु संयमोत्थानेनोत्थितं कामैरिच्छामदनरूपैर्लावयन्ति, उपनिमन्त्रयेयुरुपलोभयेयुरित्यर्थः, अनेनानुकूलोपसर्गग्रहणं, तथा यदि नयेयुर्बद्ध्वा गृहं 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे । एवमनुकूलप्रतिकूलोपसर्गेरभिद्रुतोऽपि साधुः यदि जीवितं नाभिकाक्षेद् यदि जीविताभिलाषी न भवेदसंयमजीवितं वा नाभिनन्देत् ततस्ते निजास्तं साधुं 'णो लब्भंति'त्ति, न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति आत्मसात्कर्तुं 'ण संठवित्तए'त्ति नाऽपि गृहस्थभावेन संस्थापयितुमलमिति ॥१८॥ किञ्च -
टीकार्थ - संयम पालन करने में तत्पर साधु के सम्बन्धी जन साधु के निकट आकर यदि विषय भोग का प्रलोभन देवें, इस प्रकार वे अनुकूल उपसर्ग करें तथा यदि वे बाँधकर साधु को घर ले जावें इस प्रकार वे प्रतिकूल उपसर्ग करें, 'णं' शब्द वाक्यालङ्कार में आया है। इस प्रकार अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों से पीड़ित भी वह साधु यदि जीवन की इच्छा नहीं करता है अर्थात् वह यदि असंयम जीवन को पसंद नहीं करता है तो उसके त्मीय उसे अपने वश में नहीं कर सकते हैं तथा वे उस साधु को गहस्थ भाव में भी नहीं रख सकते ॥१८॥
सेहंति य णं ममाइणो माय पिया य सुया य भारिया । पोसाहि ण पासओ तुम लोगं, परंपि जहासि पोसणो
॥१९॥
1. लाविया उवनिमंतणा चू. ।
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