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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा २०
हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः छाया - शिक्षयन्ति च ममत्ववन्तः माता पिता च सुताश्च भाऱ्या ।
पोषय नः दर्शनस्त्वं लोकं परमपि जहासि पोषय नः ॥ व्याकरण - (सेहंति) क्रिया (य) अव्यय (माय पिया, सुया भारिया) कर्ता (ममाइणो) कर्ता का विशेषण (ण) कर्म (पोसाहि) क्रिया . (तुम) अध्याहृत 'असि' क्रिया का कर्ता (पासओ) तुर्म का विशेषण (परं) लोक का विशेषण (लोकं) कर्म (जहासि) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (ममाइणो) यह साधु मेरा है यह जानकर साधु से स्नेह करनेवाले उसके (माय पिया य सुया य भारिया) माता-पिता, पुत्र और स्त्री (सेहंति य) साधु को शिक्षा भी देते हैं कि (तुमं पासओ) तूं सूक्ष्म दर्शी हो (पोसाहि) अतः हमारा पोषण करो (परंपि लोगं) तूं परलोक को भी (जहासि) बिगाड़ रहे हो अतः (पोसणो) तुम हमारा पोषण करो।
भावार्थ - साधु को अपना पुत्र आदि जानकर उसके माता-पिता, पुत्र और स्त्री आदि साधु को शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं कि हे पुत्र ! तूं बड़ा सूक्ष्म दी है, अतः हमारा पालन कर । तूं हमें छोड़कर अपना परलोक भी बिगाड़ रहा है, अतः तूं हमारा पालन कर ।
टीका - ते कदाचिन्मातापित्रादयस्तमभिनवप्रव्रजितं 'सेहंति' त्ति, शिक्षयन्ति, णमिति वाक्यालङ्कारे 'ममाइणो'त्ति, ममायमित्येवं स्नेहालवः कथं शिक्षयन्तीत्यत आह- पश्य नः अस्मानत्यन्तदुःखितांस्त्वदर्थं पोषकाभावाद्वा, त्वं च यथावस्थितार्थपश्यक:- सूक्ष्मदर्शी सश्रुतिक इत्यर्थः, अतः नः अस्मान् पोषय प्रतिजागरणं कुरु, अन्यथा प्रव्रज्याभ्युपगमेनेहलोकस्त्यक्तो भवता, अस्मत्प्रतिपालनपरित्यागेन च परलोकमपि त्वं त्यजसि इति दुःखितनिजप्रतिपालनेन च पुण्यावाप्तिरेवेति, तथाहि“या गतिः क्लेशदग्धानां गृहेषु गृहमेधिनाम । बिभ्रतां पुत्रदारांस्तु तां गतिं व्रज पुत्रक! ||१||"|१९|
टीकार्थ - नवदीक्षित साधु को उसके माता-पिता आदि स्वजन वर्ग कदाचित् शिक्षा भी देते हैं । (णम्) शब्द वाक्यालङ्कार में आया है। साधु के माता-पिता आदि समझते है कि- "यह मेरा है" इसलिए वे उस पर स्नेह करते हुए शिक्षा देते हैं। वे किस तरह शिक्षा देते हैं सो शास्त्रकार बतलाते हैं - वे कहते हैं कि हे पुत्र! तुम्हारे लिये हम अत्यन्त दुःखित हैं, तुम्हारे सिवाय दूसरा कोई हमारा पोषण करनेवाला नहीं है । तूं इस बात को देख । तूं वस्तु स्वरूप को जानने वाला विद्वान् है अतः तूं हमारा पालन कर । नहीं तो प्रव्रज्या लेकर तुमने इसलोक को तो नष्ट कर ही दिया है अब हमें छोड़कर परलोक को भी बिगाड़ रहा है। अपने दुःखी परिवार के पालन से पुण्य की प्राप्ति होती है । अत एव कहा है कि
(या गतिः) अर्थात् हे पुत्र ! पुत्र और छी को पालन करने के लिए क्लेश सहन करनेवाले गृहस्थों का जो मार्ग है उसीसे तुम भी चलो ||१९||
- एवं तैरुपसर्गिताः केचन कातराः कदाचिदेतत्कुर्युरित्याह -
- कोई कायर पुरुष माता-पिता आदि स्वजन वर्ग के द्वारा उपसर्ग किये हुए कदाचित् यह भी कर बैठते है सो शास्त्रकार बतलाते हैं -
अन्ने अन्नेहिं मच्छिया मोहं जंति नरा असंवुडा । विसमं विसमेहिं गाहिया ते पावेहिं पुणो पगब्भिया
॥२०॥ छाया - भव्येऽव्येमूर्छिताः मोहं यान्ति नरा असंवृताः । विषमं विषमेाहिताः, ते पापैः पुनः प्रगल्भिताः ॥
व्याकरण (अन्ने, असंवुडा, अन्नेहिं मुच्छिया) ये नर के विशेषण है (णरा) कर्ता (मोहं) कर्म (जंति) क्रिया (विसमेहि) कर्तृ तृतीयान्त (विसम) कर्म (गाहिया) नर का विशेषण (पुणो) अव्यय (पावेहि) अधिकरण (पगब्मिया) नर का विशेषण |
अन्वयार्थ - (असंवुडा) संयम रहित (अन्ने णरा) दूसरे मनुष्य (अन्नेहिं मुच्छिया) माता-पिता आदि दूसरे पदार्थों में आसक्त होकर (मोहं जंति) मोह को प्राप्त होते हैं (विसमेहिं विसमं गाहिया) संयमहीन पुरुषों के द्वारा असंयम ग्रहण कराये हुए वे पुरुष (पुणो पावेहिं पगब्मिया) फिर पाप कर्म करने में धृष्ट हो जाते हैं।
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