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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा २१
हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः भावार्थ - कोई संयम हीन पुरुष सम्बन्धीजनों के उपदेश से माता-पिता आदि में मूर्छित होकर मोह को प्राप्त होते हैं । वे, असंयमी पुरुषों के द्वारा असंयम ग्रहण कराये हुए फिर पाप कर्म करने में धृष्ट हो जाते हैं ।
टीका - 'अन्ने' इत्यादि, अन्ये केचनाल्पसत्त्वाः अन्यैः मातापित्रादिभिः मूर्च्छिता अध्युपपन्नाः सम्यग्दर्शनादिव्यतिरेकेण सकलमपि शरीरादिकमन्यदित्यन्यग्रहणं, ते एवम्भूता असंवृताः नराः मोहं यान्ति सदनुष्ठाने मुह्यन्ति, तथा संसारगमनैकहेतुभूतत्वाद् विषमः असंयमस्तं विषमैरसंयतैरुन्मार्गप्रवृत्तत्वेनाऽपायाभीरुभी रागद्वेष र्वा अनादिभवाभ्यस्ततया दुश्छेद्यत्वेन विषमैः ग्राहिताः असंयमं प्रति वर्तितास्ते चैवम्भूताः पापैः कर्मभिः पुनरपि प्रवृत्ताः प्रगल्भिताः धृष्टतां गताः, पापकं कर्म कुर्वन्तोऽपि न लज्जन्त इति ।।२०।।।
टीकार्थ - कोई अल्प पराक्रमी और संयम रहित पुरुष माता-पिता आदि अन्य पदार्थों में आसक्त होकर मोह को प्राप्त होते हैं. अर्थात वे शुभ अनुष्ठान करने में मोहित हो जाते हैं । वस्तुतः सम्यग्दर्शन आदि के संसार के सभी पदार्थ, यहाँ तक कि शरीर भी अपना नहीं किन्तु दूसरा है, इसलिए यहाँ सब को अन्य कहकर बताया है। जीव के संसार में आने का प्रधान कारण असंयम है, इसलिए 'विषय, असंयम को कहते हैं । असत् मार्ग से चलनेवाले और नाश से भय नहीं करनेवाले संयमहीन पुरुषों के द्वारा असंयम ग्रहण कराये हुए वे पुरुष पाप करने में फिर धृष्टता करते हैं । अथवा अनादि काल से अभ्यास किये हुए होने के कारण नष्ट करने में अति कठिन राग-द्वेष को विषम कहते हैं, उन राग-द्वेषों के द्वारा असंयम में प्रेरित किये हुए वे कायर फिर धृष्टतापूर्वक पाप कर्म करने लगते हैं । वे पाप कर्म करते हुए लज्जित नहीं होते हैं, यह भाव है ।।२०।।
- यत एवं ततः किं कर्तव्यमित्याह -
- माता-पिता आदि स्वजन वर्ग के स्नेह में पड़कर कोई कायर पुरुष संयम भ्रष्ट हो जाता हैं, इसलिए साधु को क्या करना चाहिए सो सूत्रकार बतलाते हैं - तम्हा दवि इक्ख पंडिए', पावाओ विरतेऽभिनिव्वुडे । पणए वीरे महाविहिं सिद्धिपहं णेआउयं धुवं
॥२१॥ छाया - तस्माद् द्रव्य ईक्षस्व पण्डितः पापाद्विरतोऽभिनिर्वृतः । प्रणताः वीराः महावीथीं सिद्धिपथं नेतारं ध्रुवम् ॥
व्याकरण - (तम्हा) हेतु पञ्चम्यन्त सर्वनाम (दवि पंडिए) अध्याहृत 'त्व' का विशेषण (इक्ख) क्रिया मध्यम पुरुष (पावाओ) अपादान (विरते अभिनिव्बुडे) कर्ता के विशेषण (वीरे) कर्ता (महाविहिं) कर्म (पणए) कर्ता का विशेषण (सिद्धिपह, णेआउयं, धुवं) ये महावीथि के विशेषण
अन्वयार्थ - (तम्हा) इसलिए (दवि) मुक्ति गमन योग्य अथवा राग-द्वेष रहित होकर (इक्ख) विचारो (पंडिए) सत् और असत् के विवेक से युक्त तथा (पावाओ) पाप से (विरते) निवृत्त होकर (अभिनिव्बुडे) शान्त हो जाओ (वीरे) कर्म को विदारण करने में समर्थ पुरुष (महाविहिं) महामार्ग को (पणए) प्राप्त करते हैं (सिद्धिपह) जो महामार्ग सिद्धि का मार्ग (णेयाउयं) तथा मोक्ष के पास ले जानेवाला (धुवं) और ध्रुव है।
भावार्थ- माता-पिता आदि के प्रेम में फंसकर जीव पाप करने में धृष्ट हो जाते हैं, इसलिए हे पुरुष ! तुम मुक्ति गमन योग्य अथवा राग-द्वेष रहित होकर विचार करो । हे पुरुष ! तुम सत् और असत् के विवेक से युक्त, पाप रहित और शान्त बन जाओ। कर्म को विदारण करने में समर्थ पुरुष उस महत् मार्ग से चलते हैं, जो मोक्ष के पास ले जानेवाला ध्रुव और सिद्धि मार्ग हैं।
टीका - यतो मातापित्रादिमूर्च्छिताः पापेषु कर्मसु प्रगल्भाः भवन्ति तस्माद् द्रव्यभूतो भव्यः-मुक्तिगमनयोग्यः, रागद्वेषरहितो वा सन् ईक्षस्व तद्विपाकं प-लोचय । पण्डितः सद्विवेकयुक्तः पापात् कर्मणोऽसदनुष्ठानरूपाद् विरतः निवृत्तः क्रोधादिपरित्यागाच्छान्तीभूत इत्यर्थः, तथा प्रणताः प्रह्वीभूताः वीराः कर्मविदारणसमर्थाः महावीथिं महामार्ग तमेव विशिनष्टि- सिद्धिपथं ज्ञानदिमोक्षमार्ग, तथा मोक्षम्प्रति नेतारं प्रापकं ध्रुवमव्यभिचारिणमित्येतदवगम्य स एव 1. दविएव समिक्ख पंडिते चू. ।
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