________________
सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा १४
हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः संयम पालन करनेवाले उत्तम विचार शील पुरुष जो कष्ट सहन करते हैं, वे उनके गुण के लिए होते हैं, अत एव किसी विद्वान् कवि ने कहा है कि
(कार्श्यम्) भोजन के लिए अन्न न मिलने से जो शरीर में कृशता उत्पन्न होती है, तथा खराब अन्न का भोजन एवं शीत और उष्ण के दुःख को सहना तथा तेल न मिलने से जो बालों का रुखापन है एवं बिस्तर के बिना सूखी जमीन पर शयन करना इत्यादि बातें जो गृहस्थ के लिए अवनति के चिन्ह मानी जाती हैं, वे ही संयमधारी मुनि के लिए उन्नतिजनक समझी जाती हैं, इससे सिद्ध होता है कि योग्य पद पर स्थापित किये हुए दोष भी गुण हो जाते हैं ।
अतः ज्ञानादिगुण सम्पन्न और आत्मकल्याण में तत्पर मुनि, पूर्वोक्त बातों को सोचकर क्रोध आदि का विजय करे और महान् धीर होकर शीतोष्णादि परिषहों को सहन करे । शीतोष्णादि कृत बाधा उपस्थित होने पर मन किसी प्रकार का दुःख न माने । अथवा उक्त मुनि तप और संयम के अनुष्ठान में तथा परीषहों के सहन करने में बल का गोपन न करे ||१३||
धूणिया कुलियं व लेववं किस देहमणासणादिहिं । अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो
118811
छाया - धूत्वा कूड्यं व लेपवत् कर्शयेद्देहमनशनादिभिः । अविहिंसामेव प्रव्रजेदनुधर्मो मुनिना प्रवेदितः ॥
व्याकरण - ( धूणिया) पूर्वकालिक क्रिया (कुलियं) उपमान कर्म (व) इवार्थक अव्यय (लेववं ) कुलियं का विशेषण ( किसए) क्रिया ( देहं ) कर्म (अणासणादिहिं) करण (अविहिंसां ) कर्म (एव) अव्यय (पव्वए) क्रिया (अणुधम्मो उक्त कर्म (मुणिणा) कर्तृ तृतीयान्त (पवेदितो) कर्मवाच्य क्तान्त किया ।
अन्वयार्थ - (लेववं) जैसे लेपवाली (कुलियं) भित्ति (धूणिया) लेप गिराकर क्षीण कर दी जाती है, इसी तरह (अणसणादिहिं) अनशन आदि तप के द्वारा (देह) अपनी देह को (किसए) कृश कर देना चाहिए (अविहिंसामेव ) तथा अहिंसा धर्म का ही (पव्वए) पालन करना चाहिए क्योंकि ( मुणिणा) सर्वज्ञ ने (अणुधम्मो ) यही धर्म (पवेदितो ) कहा है।
भावार्थ - जैसे लेपवाली भित्ति, लेप गिराकर कृश कर दी जाती है। इसी तरह अनशन आदि तप के द्वारा शरीर को कृश कर देना चाहिए । तथा अहिंसा धर्म का ही पालन करना चाहिए, क्योंकि सर्वज्ञ ने यही धर्म बताया है ।
टीका - 'धूणिया' इत्यादि, धूत्वा विधूय कुलियं कडणकृतं कुड्यं लेपवत् सलेपम् अयमत्रार्थ:- यथा कुडयं गोमयादिलेपेन सलेपं जाघट्टयमानं लेपापगमात्कृशं भवति, एवमनशनादिभिर्देहं कर्शयेद् अपचितमांस - शोणितं विदध्यात्, तदपचयाच्च कर्मणोऽपचयो भवतीति भावः । तथा विविधा हिंसा विहिंसा न विहिंसा अविहिंसा तामेव प्रकर्षेण व्रजेत् अहिंसा प्रधानो भवेदित्यर्थः, अनुगतो मोक्षम्प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः असावहिंसालक्षणः परीषहोपसर्गसहनलक्षणश्च धर्मो मुनिना सर्वज्ञेन प्रवेदितः कथित इति ॥ १४ ॥ किञ्च -
टीकार्थ गोबर तथा मिट्टी से लिपी हुई भित्ति जैसे लेप गिरा देने से कृश हो जाती है, इसी तरह अनशन आदि तप के द्वारा शरीर को कृश कर देना चाहिए अर्थात् शरीर के माँस और रक्त को घटा देना चाहिए । शरीर के माँस और रक्त घटा देने से कर्म भी घट जाता है, यह भाव है । विविध प्रकार की हिंसा को 'विहिंसा' कहते हैं, उस विहिंसा को न करना 'अविहिंसा' है । उस अविहिंसा धर्म का ही पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए । अर्थात् अहिंसा प्रधान होकर रहना चाहिए। जो धर्म मोक्ष के अनुकूल है, उसे 'अनुधर्म' कहते हैं, वह धर्म अहिंसा है एवं परिषह तथा उपसर्गों का सहन भी है, इन्हीं धर्मों को सर्वज्ञ ने बताया है || १४ |