________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १३ हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः दुर्गमा इति अनेन ई-समितिरुपक्षिप्ता । अस्याश्चोपलक्षणार्थत्वाद् अन्यास्वपि समितिषु सततोपयुक्तेन भवितव्यम्, अपि च अनुशासनमेव यथागममेव सूत्रानुसारेण संयम प्रति क्रामेद्, एतच्च सर्वैरेव वीरैः अर्हद्भिः सम्यक् प्रवेदितं प्रकर्षणाख्यातमिति ॥११॥
टीकार्थ - हे पुरुष ! तूं अपने जीवन को अल्प और विषयों को क्लेशप्रायः जानकर गृह-बन्धन को काटकर यत्नपूर्वक प्राणियों का नाश न करते हुए उद्युक्त विहारी बन । यही शास्त्रकार दिखलाते हैं। हे पुरुष ! तूं समिति और गप्ति से गप्त होकर रह । ऐसा क्यों ? क्योंकि सूक्ष्म प्राणियों से भरे हुए मार्ग उपयोग के बिना दुस्तर होते हैं, अर्थात् उन मार्गों में जीवों का नाश हुए बिना नहीं रहता है । यह कहकर शास्त्रकार ने ईO समिति का संकेत किया है। यह ईा समिति उपलक्षण है इसलिए अन्य समितियों में भी सदा उपयोग रखना चाहिए। तथा शास्त्रोक्त रीति से ही संयम का पालन करना चाहिए । यह सभी तीर्थङ्करों ने जोर देकर कहा है ॥११॥
- अथ क एते वीरा इत्याह -
- पूर्वोक्त प्रकार से विचरने वाले वीर पुरुष कौन हैं सो बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - विरया वीरा समुट्ठिया', कोहकायरियाइपीसणा। पाणे ण हणंति सव्वसो, पावाओ विरयाऽभिनिव्वुडा
॥१२॥ छाया - विरताः वीराः समुत्थिताः क्रोधकातरिकादिपीषणाः ।
प्राणिनो न प्रन्ति सर्वशः पापाद्विरता अभिनिर्वृताः ॥ व्याकरण - (विरया) (समुट्ठिया) (अभिनिव्वुडा) (कोहकायरियाइपीसणा) ये सब वीर के विशेषण है (सव्वसो) अव्यय (पाणे) कर्म (ण) अव्यय (हणंति) क्रिया ।
__ अन्वयार्थ - (विरया) जो हिंसा आदि पापों से निवृत्त हैं (वीरा) और कर्म को विशेष रूप से दूर करने वाले हैं (समुट्ठिया) तथा जो आरम्भ को छोड़कर हटे हुए हैं (कोहकायरियाइपीसणा) जो क्रोध और माया आदि को दूर करनेवाले हैं (सव्वसो) तथा जो मन, वचन और शरीर से (पाणे) प्राणी को (ण हणंति) नहीं मारते हैं (पावाओ विरया) तथा जो पाप से निवृत्त हैं (अभिनिबुडा) वे पुरुष, मुक्त जीव के समान शान्त हैं।
भावार्थ - जो हिंसा आदि पापों से निवृत्त तथा कषायों को दूर करने वाले और आरंभ से रहित है, एवं क्रोध, मान, माया और लोभ को त्यागकर मन, वचन और काया से प्राणियों का घात नहीं करते हैं, वे सब पापों से रहित पुरुष मुक्त जीव के समान ही शान्त हैं। ___टीका - 'विरया' इत्यादि, हिंसानृतादिपापेभ्यो ये विरताः विशेषेण कर्म प्रेरयन्तीति वीराः, सम्यगारम्भपरित्यागेनोत्थिताः समुत्थिताः, ते एवंभूताश्च, क्रोधकातरिकादिपीषणाः, तत्र क्रोधग्रहणान्मानो गृहीतः कातरिका माया तद्ग्रहणाल्लोभो गृहीतः, आदिग्रहणाच्छेषमोहनीयपरिग्रहः तत्पीषणास्तदपनेतारः तथा प्राणिनो जीवान् सूक्ष्मेतरभेदभिन्नान् सर्वशो मनोवाक्कायकर्मभिनघ्नन्ति न व्यापादयन्ति । पापाच्च सर्वतः सावद्यानुष्ठानरूपाद्विरताः, निवृत्ताः ततश्च अभिनिर्वृत्ताः क्रोधाद्युपशमेन शान्तीभूताः, यदि वा अभिनिर्वृत्ता इव अभिनिर्वृत्ताः मुक्ता इव द्रष्टव्या इति ॥१२॥
___टीकार्थ - जो पुरुष हिंसा और झूठ आदि पापों से निवृत्त हैं, तथा विशेष रूप से कर्म का नाश करने वाले और आरम्भ को त्यागकर संयम पालन में उद्यत हैं एवं जो क्रोध और माया का नाश करने वाले हैं, यहाँ क्रोध के ग्रहण से मान का और माया के ग्रहण से लोभ का भी ग्रहण है और आदि शब्द से बचे हुए मोहनीय कर्मों का ग्रहण है, इसलिए क्रोध, मान, माया, लोभ और शेष मोहनीय कर्मों का नाश करने वाले जो पुरुष मन, वचन, काया और कर्म के द्वारा प्राणियों का नाश नहीं करते हैं तथा सावध अनुष्ठान से निवृत्त हैं, वे पुरुष, क्रोध आदि शान्त हो जाने से शान्त हैं अथवा वे मुक्त जीव के समान सुखी हैं ॥१२॥ 1. वीरा विरता हु पावका चू. । १२४