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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा ६
हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः छाया - देवाः गन्धर्वराक्षसा असुराः भूमिचराः सरीसृपाः ।
राजानो नरश्रेष्ठिब्राह्मणाः स्थानानि तेऽपि त्यजन्ति दुःखिताः ॥ व्याकरण - (देवा, गंधव्वरक्खसा, असुरा, भूमिचरा, सरीसिवा, राया, नरसेट्ठिमाहणा) ये सभी त्याग क्रिया के कर्ता हैं । (ते) सर्वनाम, देव आदि का विशेषण (दक्खिया) देवादि का विशेषण (ठाणा) कर्म (चयंति) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (देवा) देवता, (गंधव्वरक्खसा) गन्धर्व, राक्षस, (असुरा) असुर (भूमिचरा) भूमि पर चलनेवाले (सरिसिवा) सरक कर चलनेवाले तिर्यच (राया) राजा (नरसेट्ठिमाहणा) मनुष्य, नगर के श्रेष्ठ, ब्राह्मण (ते वि) ये सभी (दुक्खिया) दुःखित होकर (ठाणा) अपने स्थानों को (चयंति) छोड़ते हैं।
भावार्थ - देवता, गन्धर्व, राक्षस, असुर, भूमिचर, तिर्यश्च, चक्रवर्ती, साधारण मनुष्य, नगर का श्रेष्ठ पुरुष और ब्राह्मण ये सभी दुःखी होकर अपने स्थानों को छोड़ते हैं।
टीका - देवाः ज्योतिष्कसौधर्माद्याः, गन्धर्वराक्षसयोरुपलक्षणत्वादष्टप्रकाराः व्यन्तराः गृह्यन्ते । तथा असुराः दशप्रकाराः भवनपतयः, ये चाऽन्ये भूमिचराः सरीसृपाद्याः तिर्यञ्चः, तथा राजानः चक्रवर्तिनो बलदेववासुदेवप्रभृतयः, तथा नराः सामान्यमनुष्याः श्रेष्ठिनः पुरमहत्तराः ब्राह्मणाश्चैते सर्वेऽपि स्वकीयानि स्थानानि दुःखिताः सन्तस्त्यजन्ति, यतः सर्वेषामपि प्राणिनां प्राणपरित्यागे महद् दुःखं समुत्पद्यत इति ॥५।। किञ्च -
टीकार्थ - ज्योतिष्क और सौधर्म आदि देवता, गन्धर्व और राक्षस उपलक्षण हैं, इसलिए आठ प्रकार के व्यंतर देवता, तथा दस प्रकार के भवनपति एवं भूमि पर चलनेवाले सरीसृप आदि तिर्यञ्च तथा बलदेव, वासुदेव वगैरह चक्रवर्ती एवं सामान्य मनुष्य और पुर के श्रेष्ठ पुरुष तथा ब्राह्मण ये सभी दुःखित होकर अपने स्थानों को छोड़ते हैं। सभी प्राणियों को प्राण छोड़ते समय महादुःख होता है ॥५॥
कामेहि संथवेहि गिद्धा, कम्मसहा कालेण जंतवो । ताले जह बंधणच्चुए एवं आउक्खयंमि तुट्टती'
॥६॥ छाया - कामेषु संस्तवेषु गृद्धाः कर्मसहाः कालेन जन्तवः । तालं यथा बन्धनाच्च्युतमेवमायुःक्षये त्रुटयति।।
व्याकरण - (कामेहि, संथवेहि) अधिकरण (गिद्धा कम्मसहा) जन्तु के विशेषण (जंतवो) कर्ता । (ताले) उपमान कर्ता (बंधणच्चुए) ताल का विशेषण (एव) अव्यय (आउक्खयंमि) भावलक्षणसप्तम्यन्त पद (तुट्टती) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (कामेहि संथवेहि) विषय भोग की तृष्णा और माता-पिता-स्त्री-पुत्र आदि परिचत पदार्थों में (गिद्धा) आसक्त रहने वाले (जंतवो) प्राणी (कालेण) अवसर आने पर (कम्मसहा) अपने कर्म का फल भोगते हुए (जह) जैसे (बंधणच्चुए) बंधन से छुटा हुआ (ताले) तालफल गिर जाता है (एवं) इसी तरह (आउक्खयम्मि) आयु नष्ट हो जाने पर (तुट्टती) मर जाते हैं।
भावार्थ-विषयभोग की तृष्णावाले तथा माता-पिता और स्त्री आदि परिचित पदाथों में आसक्त रहनेवाले प्राणी अवसर आनेपर अपने कर्म का फल भोगते हुए आयु क्षीण होने पर इस प्रकार मृत्यु को प्रास होते हैं, जैसे बंधन से छुटा हुआ ताल फल गिर जाता है ।
टीका - 'कामेहि' इत्यादि, कामैरिच्छामदनरूपैस्तथा संस्तवैः पूर्वापरभूतैः गृद्धा अध्युपपन्नाः सन्तः कम्मसहेत्ति कर्मविपाकसहिष्णवः कालेन कर्मविपाककालेन जन्तवः प्राणिनो भवन्ति । इदमुक्तं भवति- भोगेप्सोर्विषयासेवनेन तदुपशममिच्छत इहामुत्र च क्लेश एव केवलं न पुनरुपशमावाप्तिः तथाहि - “उपभोगोपायपो वाञ्छति यः शमयितुं विषयवृष्णाम् । धावत्याक्रमितुमसौ पुरोऽपराणे निजच्छायाम्"?
न च तस्य मुमूर्षोः कामैः संस्तवैश्च त्राणमस्तीति दर्शयति -
यथा तालफलं बन्धनाद् वृन्तात् च्युतमत्राणमवश्यं पतति एवमसावपि स्वायुषः क्षये त्रुटयति जीवितात् च्यवत इति ॥६॥ अपि च 1. तुट्टति चू. ।
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