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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा ७-८
हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः टीकार्थ - इच्छा मदन रूप काम (विषय तृष्णा) और पहले तथा पीछे के परिचित माता-पिता और स्त्री आदि में आसक्त प्राणी कर्म का उदयकाल आने पर उसका फल भोगते हैं । भाव यह है कि भोग की इच्छा करनेवाला जो पुरुष विषय का सेवन करके अपनी तृष्णा को निवृत्त करना चाहता है । वह इस लोक तथा परलोक में केवल क्लेश ही पाता है। उसकी तष्णा की शान्ति कभी नहीं होती है । अत एव कहा है कि -
जो पुरुष विषय सेवन के द्वारा विषय भोग की तृष्णा को निवृत्त करना चाहता है, वह मानो दोपहर के बाद अपनी छाया को पकड़ने के लिए आगे दौड़ता है।
उस मृत्युग्रस्त पुरुष की विषय भोग और परिचित पदार्थों के द्वारा रक्षा नहीं होती है. यह शास्त्रकार दिखलाते हैं- जैसे बंधन से छुटा हुआ तालफल अवश्य गिर जाता है, कोई भी उसकी रक्षा नहीं करता । इसी तरह आयु क्षीण होने पर जीव अपने जीवन से भ्रष्ट हो जाता है ॥६॥
जे यावि बहुस्सुए सिया, धम्मिय माहण भिक्खुए सिया । अभिणूमकडेहिं मुच्छिए तिव्वं ते कम्मेहिं किच्चती'
॥७॥ छाया - ये चाऽपि बहुश्रुताःस्युः धार्मिकब्राह्मणभिक्षुकाः स्युः ।
अभिच्छादककृतैमूर्छितास्तीवं ते कर्मभिः कृत्यन्ते ॥ व्याकरण - (जे) सर्वनाम, कर्ता का विशेषण (य, अवि) अव्यय (बहुस्सुए) (धम्मिय, माहण, भिक्खुए) कर्ता (सिया) क्रिया (अभिणूमकडेहिं) अधिकरण (मूच्छिए) ब्राह्मणादि का विशेषण (तिब्बं) क्रिया विशेषण (कम्मेहिं) कर्तृतृतीयान्त (किच्चती) कर्मवाच्य क्रिया।
अन्वयार्थ - (जे यावि) जो लोग बहुश्रुत अर्थात् बहुत शास्त्रों को सुने हुए (सिया) हो (धम्मिय माहण भिक्खुए सिया) तथा जो धार्मिक ब्राह्मण और भिक्षुक हों (अभिणूमकडेहिं मूच्छिए) परन्तु मायाकृत अनुष्ठान में यदि वे आसक्त हैं, तो (ते) वे (तिव्वं) अत्यन्त (कम्मेहि) कर्म के द्वारा (किच्चती) पीड़ित किये जाते हैं ।
भावार्थ - मायामय अनुष्ठान में आसक्त पुरुष चाहे बहुश्रुत हों, धार्मिक हो, ब्राह्मण हों चाहे भिक्षुक हों वे कों के द्वारा अत्यन्त पीड़ित किये जाते हैं।
टीका - ये चाऽपि बहुश्रुताः शास्त्रार्थपारगाः तथा धार्मिकाः धर्माचरणशीलाः तथा ब्राह्मणाः भिक्षुका भिक्षाटनशीला: स्युः भवेयुः, तेऽप्याभिमुख्येन ‘णूम'न्ति कर्म माया वा तत्कृतैरसदनुष्ठानैर्मूर्छिताः गृद्धाः तीव्रमत्यर्थं, अत्र च छान्दसत्वाद् बहुवचनं द्रष्टव्यम् । त एवम्भूताः कर्मभिः सद्वेद्यादिभिः कृत्यन्ते छिद्यन्ते पीडयन्त इति यावत् ॥७॥
टीकार्थ - जो शास्त्र और अर्थ के पारगामी है, तथा जो धर्माचरण शील, ब्राह्मण और भिक्षुक हैं, वे यदि मायाकृत अनुष्ठान में आसक्त हैं तो वे सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्मों से अत्यन्त पीडित किये जाते हैं. यहाँ छान्दसत्वात् (किच्चती) यह बहुवचन समझना चाहिए ॥७॥
- साम्प्रतं ज्ञानदर्शनचारित्रमन्तरेण नापरो मोक्षमार्गोऽस्तीति त्रिकालविषयत्वात्सूत्रस्यागामितीर्थिकधर्मप्रतिषेधार्थमाह -
- ज्ञान, दर्शन और चारित्र को छोड़कर दूसरा कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है और भविष्य में भी न होगा क्योंकि सूत्र तीनों काल की बात को बतलाता है, इसलिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र से भिन्न पदार्थ को मोक्ष का मार्ग बतानेवाले जो अन्यतीर्थी भविष्यत् काल में होंगे उनका निषेध करने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - अह पास विवेगमट्ठिए, अवितिन्ने इह भासई धुवं । णाहिसि आरं कओ परं? वेहासे कम्मेहिं किच्चती2
॥८॥ 1. किच्चंति चू.। 2. किच्चंति चू. । १२०