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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १४
परसमयवक्तव्यतायामकारकवादिमतखण्डनाद्यधिकारः
छोड़कर वह स्तन में मुख नहीं लगाता है । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि बालक में विज्ञान का लेश अवश्य है । वह विज्ञानलेश, अन्यविज्ञानपूर्वक है और वह अन्यविज्ञान, दूसरे भव का विज्ञान है, अतः परलोक में जानेवाला पदार्थ अवश्य है, यह सिद्ध होता है ।1
तथा तज्जीवतच्छरीरवादियों ने जो यह कहा है कि- ( विज्ञानघन एव) अर्थात् " विज्ञानपिण्ड आत्मा इन भूतों से उत्पन्न होकर इनके नाश होने पर नष्ट हो जाता है इत्यादि", यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस श्रुति का अर्थ यह है- ‘“विज्ञानपिण्ड आत्मा, पूर्वभव के कर्मवश, शरीररूप में परिणत पाँच महाभूतों के द्वारा अपने कर्म का फल भोगकर उन भूतों के नाश होने पर उस रूप से नष्ट होकर फिर दूसरे पर्य्याय में उत्पन्न होता है ।" परंतु उन भूतों के साथ ही नष्ट हो जाता है, यह अर्थ नहीं हैं । तथा यह जो कहा है कि- "धर्मीरूप आत्मा न होने से उसके धर्मरूप पाप-पुण्य भी नहीं हैं", यह भी अयुक्त है, क्योंकि पूर्वोक्त युक्तिसमूह के द्वारा धर्मीरूप आत्मा का अस्तित्व सिद्ध कर दिया गया है और धर्मीरूप आत्मा सिद्ध होने पर उसके धर्मरूप पाप-पुण्य की सिद्धि भी समझनी चाहिए । तथा जगत् की विचित्रता देखने से भी पुण्य-पाप की सिद्धि होती है ? तज्जीवतच्छरीर-वादी ने स्वभाव से जगत् की विचित्रता सिद्ध करने के लिए जो पत्थर के टुकड़ों का दृष्टान्त दिया है, वह भी उन पत्थरों को भोग करनेवाले उनके स्वामियों के कर्मवश वैसा हुआ है, इसलिए पुण्य-पाप का अस्तित्व नहीं हटाया जा सकता है । तथा आपने आत्मा का अभाव सिद्ध करने के लिए जो केले के स्तम्भ आदि अनेक दृष्टान्त दिये हैं, वह भी आप की वाचालतामात्र है, क्योंकि पूर्वोक्त युक्तिसमूह के द्वारा परलोक जानेवाला, भूतों से भिन्न, सार रूप आत्मा सिद्ध कर दिया गया है । अतः इस विषय में अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है ।
अब शेष सूत्र की व्याख्या की जाती है। एक भव से दूसरे भव में जानेवाला, चार प्रकार की गतिवाला एवं कोई सुभग, कोई दुर्भग, कोई सुरूप, कोई मन्दरूप, कोई धनवान्, कोई दरिद्र इत्यादि विचित्र रूपवाला यह लोक, भूतों से अतिरिक्त आत्मा न माननेवाले तज्जीवतच्छरीरवादियों के मत में किस प्रकार हो सकता है ? । वे आत्मा नहीं मानते हैं, इसलिए उनके मत में पूर्वोक्त विचित्र जगत् किसी प्रकार भी नहीं हो सकता है । अतः वे नास्तिक, परलोक जानेवाला आत्मा न मानने के कारण पुण्य-पाप का भी अभाव मानकर इच्छानुसार कार्य्य करते हैं । इस कारण वे एक अज्ञानरूप अन्धकार से निकलकर फिर दूसरे अन्धकार को प्राप्त करते हैं। आशय यह है कि वे ऐसा करके फिर भी ज्ञानावरणादिरूप बड़े से बड़े अन्धकार का सञ्चय करते हैं। अथवा जो अन्धकार के समान है, उसे यहाँ 'तम' कहा है । वह, नरकादि यातनास्थान है, क्योंकि दुःख के कारण उन स्थानों में सद् और असत् का विवेक नष्ट हो जाता है । उस नरकस्थान से निकलकर वे उससे बड़े दूसरे नरक में जाते हैं। वे, सातवीं नरक भूमि में (१) रौरव, (२) महारौरव, (३) काल, (४) महाकाल और (५) अप्रतिष्ठान नामक नरकावास में जाते हैं, यह अर्थ है । वे इन नरकों में क्यों जाते हैं ? कहते हैं कि वे मूर्ख हैं, इसलिए युक्तिसिद्ध आत्मा को अपने मिथ्या आग्रह के कारण न मानकर वे, विचारशील पुरुषों के द्वारा निन्दित प्राणिहिंसा रूप व्यापार में आसक्त रहते हैं । तथा वे पाप-पुण्य का अभाव मानकर परलोक की परवाह न करते हुए आरम्भ में प्रवृत्त रहते हैं । इस तज्जीवतच्छरीरवादी के मत का खण्डन करने के लिए नियुक्तिकार "पञ्चण्हं" इत्यादि गाथा बतलाते हैं । यह (३३) गाथा पूर्ववत् यहाँ भी जाननी चाहिए ||
अब अकारकवादी के मत को लेकर इस श्लोक की फिर व्याख्या की जाती है ।
ये जो अकारकवादी, नित्य, अमूर्त और सर्वव्यापी होने के कारण आत्मा को निष्क्रिय मानते हैं, उनके मत में, जरा, मरण, शोक, रोदन और हर्षादिरूप तथा नरक, तिर्य्यक, मनुष्य और अमरगति रूप यह लोक कैसे हो सकता है ? अर्थात् उत्पत्ति विनाशरहित स्थिर एक स्वभाववाला आत्मा स्वीकार करने पर पूर्वोक्त रूप जगत् किसी
1. जिस पदार्थ का जिसने कभी उपभोग नहीं किया है, उसकी इच्छा उसमें नहीं होती है । उसी दिन का जन्मा हुआ बालक माता के स्तन पीने की इच्छा करता है परन्तु उसने पहले कभी स्तन पान नहीं किया है फिर उस बालक को स्तन पीने की इच्छा क्यों हुई ? इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस बालक ने पूर्वजन्म में माता का स्तन पान किया है, इसीलिए उसको स्तन पान की फिर इच्छा हुई है। अतः परलोकगामी आत्मा अवश्य है, यह स्पष्ट सिद्ध है ।