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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशके गाथा १० परसमयवक्तव्यतायां जगत्कर्तृत्वखण्डनाधिकारः लोक से युक्त है । यह लोक, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीवात्मक है । यह द्रव्यार्थ रूप से नित्य और पर्याय रूप से क्षणक्षयी है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होने के कारण यह लोक द्रव्य स्वरूप है। अनादि कालिक जीव और कर्म के सम्बन्ध से उत्पन्न अनेक भव प्रपञ्च से यह युक्त है। तथा आठ प्रकार के कर्मों से रहित मुक्त जीवों का लोक इसके अन्त में है । ऐसे जगत् का स्वरूप नहीं जाननेवाले वे अन्यदर्शनी मिथ्या भाषण करते हैं ॥९॥
- इदानीमेतेषामेव देवोप्तादिवादिनामज्ञानित्वं प्रसाध्य तत्फलादिदर्शयिषयाऽऽह -
- इन देवोप्तादिवादियों को अज्ञानी सिद्ध करके अब सूत्रकार, इनको जो फल प्राप्त होता है वह दिखाने के लिए कहते हैं - अमणुन्नसमुप्पायं, दुक्खमेव विजाणिया । समुप्पायमजाणंता, कहं नायंति संवरं ?
॥१०॥ छाया - अमनोज्ञसमुत्पादं दुःखमेव विजानीयात् । समुत्पादमजानन्तः कथं ज्ञास्यन्ति संवरम् ॥
व्याकरण - (अमणुन्नसमुप्पाय) दुःख का विशेषण है (दुक्खं) 'विजाणिया क्रिया का कर्म है (एव) अव्यय (समुप्पाय) 'अजाणता' का कर्म (अजाणता) देवोप्तादिवादियों का विशेषण (कह) अव्यय (नायंति) क्रिया (संवर) कर्म ।
अन्वयार्थ - (दुक्खं) दुःख (अमणुन्नसमुप्पायमेव) अशुभ अनुष्ठान से ही उत्पन्न होता है (विजाणिया) यह जानना चाहिए (समुप्पाय) दुःख की उत्पत्ति का कारण (अजाणता) न जाननेवाले लोग (संवर) दुक्ख को रोकने का उपाय (कह) कैसे (नायंति) जान सकते हैं।
भावार्थ - अशुभ अनुष्ठान करने से ही दुःख की उत्पत्ति होती है । जो लोग दुःख की उत्पत्ति का कारण नहीं जानते हैं, वे दुःख के नाश का कारण कैसे जान सकते हैं ?
टीका - मनोऽनुकूलं मनोज्ञं-शोभनमनुष्ठानं न मनोज्ञममनोज्ञम् असदनुष्ठानं तस्मादुत्पादः-प्रादुर्भावो यस्य दुःखस्य तदमनोज्ञसमुत्पादम्, एवकारोऽवधारणे, स चैवं संबन्धनीयः-अमनोज्ञसमुत्पादमेव दुःखमित्येवं विजानीयात् अवगच्छेत्प्राज्ञः। एतदुक्तम्भवति-स्वकृतासदनुष्ठानादेव दुःखस्योद्भवो भवति नान्यस्मादिति, एवं व्यवस्थितेऽपि सति अनन्तरोक्तवादिनोऽसदनुष्ठानोद्भवस्य दुःखस्य समुत्पादमजानानाः सन्तोऽन्यत ईश्वरादेर्दुःखस्योत्पादमिच्छन्ति, ते चैवमिच्छन्तः कथं केन प्रकारेण दुःखस्य संवरं-दुःखप्रतिघातहेतुं ज्ञास्यन्ति । निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवति । ते च निदानमेव न जानन्ति, तच्चाजानानाः कथं दुःखोच्छेदाय यतिष्यन्ते ? यत्नवन्तोऽपि च नैव दुःखोच्छेदमवाप्स्यन्ति, अपि तु संसार एव जन्मजरामरणेष्टवियोगाद्यनेकदुःखवाताघाता भूयो भूयोऽरहट्टघटीन्यायेनानन्तमपि कालं संस्थास्यन्ति ॥१०॥
टीकार्थ - जो मन के अनुकूल है उसे 'मनोज्ञ' कहते हैं । शोभन अनुष्ठान 'मनोज्ञ' कहलाता है । जो मनोज्ञ नहीं है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं, वह असत् अनुष्ठान है । उस असत् अनुष्ठान से जिसकी उत्पत्ति होती है, उसे "अमनोज्ञसमुत्पाद" कहते हैं । एवकार अवधारणार्थक है । उसका सम्बन्ध इस प्रकार करना चाहिए । अशुभ अनुष्ठान करने से ही दुःख उत्पन्न होता है, यह बुद्धिमान् पुरुष को जानना चाहिए । आशय यह है किअपने किये हुए अशुभ अनुष्ठान से ही दुःख की उत्पत्ति होती है, किसी दूसरे से नहीं होती है। ऐसी व्यवस्था होने पर भी पूर्वोक्त वादी, अशुभ अनुष्ठान से होनेवाली दुःख की उत्पत्ति नहीं जानते हुए ईश्वर आदि अन्य पदार्थ के द्वारा दुःख की उत्पत्ति मानते हैं । वे इस प्रकार दुःख की उत्पत्ति माननेवाले दुःख के नाश का कारण कैसे जान सकते हैं ? कारण के नाश से कार्य का नाश होता है, परन्तु वे अन्यतीर्थी दु:ख के कारण को ही नहीं जानते हैं । दुःख के कारण को न जानते हुए वे दुःख के नाश के लिए किस तरह प्रयत्न कर सकेंगे ? । यदि वे प्रयत्न करें तो भी दुःख का नाश नहीं कर सकते हैं, अपितु जन्म, जरा, मरण और इष्ट वियोगरूप अनेकों दुःखों से पीड़ित होते हुए, वे लोग अरहट की तरह अनन्तकाल तक संसार में ही पड़े रहेंगे ॥१०॥