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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा ४
परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः
टीका - सह परिग्रहेण धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिना वर्तन्ते तदभावेऽपि शरीरोपकरणादौ मूर्च्छावन्तः सपरिग्रहाः, तथा सहारम्भेण जीवोपमर्दादिकारिणा व्यापारेण वर्तन्त इति तदभावेऽप्यौद्देशिकादिभोजित्वात् सारम्भाः - तीर्थिकादयः, सपरिग्रहारम्भकत्वेनैव च मोक्षमार्गं प्रसाधयन्तीति दर्शयति- इह परलोकचिन्तायाम् एकेषां केषाञ्चिद् आख्यातं भाषितं, यथा किमनया शिरस्तुण्डमुण्डनादिकया क्रियया ?, परं गुरोरनुग्रहात् परमाक्षरावाप्तिस्तद्दीक्षावाप्तिर्वा यदि भवति ततो मोक्षो भवतीत्येवं भाषमाणास्ते न त्राणाय भवन्तीति । ये तु त्रातुं समर्थास्तान् पश्चार्द्धेन दर्शयति- अपरिग्रहाः न विद्यन्ते धर्मोपकरणादृते शरीरोपभोगाय स्वल्पोऽपि परिग्रहो येषां ते अपरिग्रहाः, तथा न विद्यते सावद्य आरम्भो येषां तेऽनारम्भाः, ते चैवंभूताः कर्मलघवः स्वयं यानपात्रकल्पाः संसारमहोदधेर्जन्तूत्तारणसमर्थास्तान् भिक्षुः भिक्षणशील उद्देशिकाद्यपरिभोजी त्राणं शरणं परि-समन्ताद् व्रजेद् गच्छेदिति ||३||
टीकार्थ जो धन, धान्य, द्विपद और चतुष्पद आदि परिग्रह रखते हैं, वे सपरिग्रह कहलाते हैं, तथा धन, धान्य आदि न होने पर भी जो शरीर और उपकरण आदि में मूर्च्छा रखते हैं वे भी 'सपरिग्रह' हैं । जो जीवों का विनाश करनेवाला व्यापार करते हैं, वे 'सारम्भ' कहलाते हैं । तथा जीवों का विनाश करनेवाले व्यापार न करने पर भी जो उद्देशिक आहार खाते हैं, वे भी 'सारम्भ' हैं । अन्यतीर्थियों का सिद्धान्त है कि- " सपरिग्रह और सारम्भ पुरुष भी मोक्ष मार्ग का साधन करते हैं ।" यह शास्त्रकार दिखलाते हैं । परलोक के विषय में किसी का कथन है कि- शिर और मूँछ मुँड़ाने की क्या आवश्यकता है ? केवल गुरु की कृपा से परम अक्षर की प्राप्ति अथवा दीक्षा की प्राप्ति हो जाने से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । इस प्रकार भाषण करनेवाले वे अन्यतीर्थी संसार सागर से रक्षा के लिए समर्थ नहीं हो सकते हैं। जो लोग संसार सागर से जीवों की रक्षा करने में समर्थ है, उन्हें उत्तरार्ध द्वारा शास्त्रकार बतलाते हैं- जो पुरुष, धर्मोपकरण के सिवाय अपने शरीर के भोग के लिए थोड़ा भी परिग्रह नहीं रखते हैं तथा जो पुरुष सावद्य आरम्भ नहीं करते हैं, वे कर्मलघु पुरुष संसार सागर से जीवों को पार उतारने के लिए नौका के समान समर्थ हैं । अतः उद्देशिक आदि आहार को वर्जित करनेवाला शुद्धभिक्षान्नभोजी भावभिक्षु जो है सर्वतोभावेन उन्हींके शरण में जावे ॥३॥
कथं पुनस्तेनापरिग्रहेणानारम्भेण च वर्तनीयमित्येतद्दर्शयितुमाह
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परिग्रह और आरम्भवर्जित साधु को कैसे रहना चाहिए, यह दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं कडेसु घासमेसेज्जा, विऊ दत्तेसणं चरे ।
अगिद्धो विप्पमुक्को अ ओमाणं परिवज्जए
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छाया - कृतेषु ग्रासमेषयेत्, विद्वान् दत्तेषणां चरेत् । अगृद्धो विप्रमुक्तश्च अपमानं परिवर्जयेत् ॥ व्याकरण - (कडेसु) अधिकरण (घासं) कर्म (एसेज्जा) क्रिया (विऊ) कर्ता (दत्तेसणं) कर्म (चरे) क्रिया (अगिद्धो, विप्पमुक्को) कर्ता के विशेषण (अ) अव्यय (ओमाणं) कर्म (परिवज्जए) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (कडेसु) दूसरे द्वारा किये हुए आहार में से (विऊ) विद्वान् पुरुष (घासं) आहार की ( एसेज्जा ) गवेषणा करे (दत्तेसणं) तथा दिये हुए आहार को लेने की इच्छा (चरे) करे । एवं (अगिद्धो, विप्पमुक्को) गृद्धि रहित तथा राग-द्वेष वर्जित होकर ( ओमाणं परिवज्जए ) दूसरे का अपमान न करे ।
भावार्थ - विद्वान् साधु दूसरे द्वारा बनाये हुए आहार की गवेषणा करे तथा दिये हुए आहार को ही ग्रहण करने की इच्छा करे । तथा आहार में मूर्च्छा और राग-द्वेष न करे । एवं दूसरे का अपमान कभी न करे ।
टीका - गृहस्थैः परिग्रहारम्भद्वारेणाऽऽत्मार्थं ये निष्पादिता ओदनादयस्ते कृता उच्यन्ते तेषु कृतेषु - परकृतेषु परनिष्ठितेष्वित्यर्थः, अनेन च षोडशोद्गमदोषपरिहारः सूचितः, तदेवमुद्द्रमदोषरहितं ग्रस्यत इति ग्रासः - आहारस्तमेवंभूतम् अन्वेषयेत् मृगयेद् याचेदित्यर्थः । तथा विद्वान् संयमकरणैकनिपुणः परैराशंसादोषरहितैर्यन्निःश्रेयसबुद्धया दत्तमिति, अनेन षोडशोत्पादनदोषाः परिगृहीताः द्रष्टव्याः, तदेवम्भूते दौत्यधात्रीनिमित्तादिदोषरहिते आहारे स भिक्षुः
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