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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा ८
परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः उत्पादविनाशौ विद्येते 'न कदाचिदनीदृशं जगदि' तिवचनात् । तदेवमनन्तादिकं लोकवादं परिहृत्य यथावस्थितवस्तुस्वभावाविर्भावनं पश्चार्धेन दर्शयति-ये केचन त्रसाः स्थावराः वा तिष्ठन्त्यस्मिन् संसारे तेषां स्वकर्मपरिणत्याऽस्त्यसौ पर्य्यायः 'अंजू' इति प्रगुणोऽव्यभिचारी तेन पर्य्यायेण स्वकर्मपरिणतिजनितेन ते त्रसाः सन्तः स्थावराः सम्पद्यन्ते, स्थावरा अपि च त्रसत्वमश्नुवते तथा त्रसास्त्रसत्वमेव स्थावराः स्थावरत्वमेवाऽऽप्नुवन्ति न पुनर्यो यादृगिह स तादृगेवामुत्रापि भवतीत्ययं नियम इति ॥८॥
टीकार्थ जो भय पाते हैं, उन्हे 'त्रस' कहते हैं । द्वीन्द्रिय आदि प्राणी त्रस हैं। ये द्वीन्द्रिय आदि प्राणी त्रसत्व को अनुभव करते हैं । एवं जिनमें स्थावर नाम कर्म का उदय है, वे पृथिवी आदि प्राणी स्थावर ह हैं । जो मनुष्य आदि प्राणी इस जन्म में जैसा है, वह दूसरे जन्म में भी वैसा ही होता है।' यह लोकवाद यदि सत्य हो तब तो दान, अध्ययन, जप, नियम और तप आदि समस्त क्रियायें व्यर्थ होगीं । परन्तु यह नहीं होता। लौकिकों ने भी जीवों का अन्यथाभाव कहा है जैसे कि
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वह पुरुष शृगाल होता है जो विष्ठा के सहित जलाया जाता है ।
अतः स्थावर और जङ्गम सभी प्राणी अपने किये हुए कर्म के अनुसार एक से दूसरी गति में जाते हैं, अर्थात् त्रस स्थावर होते हैं, और स्थावर त्रस होते हैं । तथा लौकिकों ने जो यह कहा है कि "यह लोक अनन्त और नित्य है" इसका समाधान दिया जाता है। पदार्थों की अपनी-अपनी जाति का नाश नहीं होता है, इसलिए यदि इस जगत को नित्य कहते हो तब तो कोई क्षति नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर आर्हतमतप्रसिद्ध परिणामानित्यत्व पक्ष को ही तुम स्वीकार करते हो। यदि ऐसा न मानकर तुम उत्पत्ति विनाश रहित स्थिर एक स्वभाववाले पदार्थों को मानकर जगत् की नित्यता कहते हो तो यह सत्य नहीं है क्योंकि जगत् में कोई भी पदार्थ उत्पत्ति विनाश रहित स्थिर एक स्वभाववाला नहीं देखा जाता है, अतः ऐसी मान्यता प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है । इस जगत् में ऐसा एक भी पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता है जो क्षण क्षण उत्पन्न होनेवाले पर्य्यायों से युक्त न हो । वस्तुतः पर्य्याय रहित पदार्थ आकाश के पुष्प की तरह असत् स्वरूप ही सिद्ध होगा । तथा कार्य्यद्रव्य को और आकाश तथा आत्मा आदि को जो अविनाशी कहते हो यह भी द्रव्यविशेष की अपेक्षा से मिथ्या ही है, क्योंकि सभी पदार्थ उत्पत्ति, विनाश तथा ध्रौव्य इन तीनों से युक्त होकर विभाग रहित ही प्रवृत्त होते हैं । यदि ऐसा न माना जाय तो आकाश के पुष्प के समान पदार्थ का वस्तुत्व ही न रहेगा । तथा लौकिकों ने जो यह कहा है कि - " सात द्वीपों से युक्त होने के कारण यह लोक अन्तवाला है" यह भी तुम्हारे मूर्ख मित्र ही मान सकते हैं, परन्तु जो विचारकर कार्य करनेवाले हैं, वे नहीं मान सकते हैं, क्योंकि इस बात को सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है। तथा लौकिकों ने जो यह कहा है कि- "पुत्रहीन पुरुष के लिए कोई लोक नहीं है" यह भी बालक का भाषण के समान ही युक्ति रहित है, क्योंकि पुत्र की सत्तामात्र से विशिष्ट लोक की प्राप्ति होती है अथवा पुत्र के द्वारा किये हुए विशिष्ट अनुष्ठान से होती है ? यदि पुत्र के सद्भाव मात्र से विशिष्ट लोक की प्राप्ति कहो तब तो समस्त लोक कुत्ते और सुअरों से पूर्ण हो जायँगे, क्योंकि इनके पुत्र बहुत होते हैं । यदि पुत्र के द्वारा किये हुए शुभ अनुष्ठान से विशिष्ट लोक की प्राप्ति मानो तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिस पुरुष के दो पुत्र हैं, उनमें एक ने शुभ अनुष्ठान किया और दूसरे ने अशुभ अनुष्ठान किया है, तो वह पिता एक पुत्र के शुभ अनुष्ठान के प्रभाव से उत्तम लोक में जायगा अथवा दूसरे पुत्र के द्वारा किये हुए अशुभ अनुष्ठान के कारण अशुभ लोक में जायगा । तथा उस पिता ने जो कर्म किये हैं, वे तो निष्फल ही होंगे, अतः 'पुत्र रहित के लिए कोई लोक नहीं" यह कथन अविवेक पूर्ण हैं । तथा "कुत्ते यक्ष हैं" यह कथन तो युक्ति विरुद्ध होने के कारण सुनने योग्य भी नहीं है । तथा लौकिकों ने जो यह कहा है कि- "ईश्वर अपरिमित पदार्थ को जानते हैं, परन्तु सर्वज्ञ नहीं हैं।" यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अपरिमितपदार्थदर्शी होकर भी जो पुरुष सर्वज्ञ नहीं है, वह हेय ( त्याग ने योग्य) और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) पदार्थों के उपदेश देने में समर्थ नहीं हो सकता है, अतः बुद्धिमान् पुरुष उसका आदर नहीं कर सकते हैं । उस पुरुष के कीट संख्या का ज्ञान भी उपयोगी ही है, क्योंकि वह जैसे कीड़ो के विषय में नहीं जानता है, उसी तरह दूसरे पदार्थों के विषय में भी नहीं जानता होगा, ऐसी आशङ्का के कारण
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