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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकेः प्रस्तावना
हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः वेयालियं इह देसियंति येयालियं तओ होइ । येयालियं तहा वित्तमत्थि तेणेव य णिबद्धं ॥३८॥ निक
इहाध्ययनेऽनेकधा कर्मणां विदारणमभिहितमिति कृत्वैतदध्ययनं निरुक्तिवशाद्विदारकं ततो भवति, यदि वा वैतालीयमित्यध्ययननाम, अत्राऽपि प्रवृत्तौ निमित्तं- वैतालीयं छन्दोविशेषरूपं वृत्तमस्ति, तेनैव च वृत्तेन निबद्धमित्यध्ययनमपि वैतालीयं तस्य चेदं लक्षणम्
“वैतालीयं लगनैर्धनाः षइयुकपादेऽष्टौ समे च लः ।
न समोऽत्र परेण युज्यते नेतः षट् च निरन्तरा युजोः" ||३८।। साम्प्रतमध्ययनस्योपोद्घातं दर्शयितुमाहकामं तु सासयमिणं कहियं अट्ठावयंमि उसभेणं । अट्ठाणउतिसुयाणं सोऊणं ते वि पव्वइया ॥३९॥ नि०
कामशब्दोऽयमभ्युपगमे, तत्र यद्यपि सर्वोऽप्यागमः शाश्वतः तदन्तर्गतमध्ययनमपि तथापि भगवता आदितीर्थाधिपेनोत्पन्नदिव्यज्ञानेनाष्टापदोपरिव्यवस्थितेन भरताधिपभरतेन चक्रवर्तिनोपहतैरष्टनवतिभिः पुत्रैः पृष्टेन यथा भरतोऽस्मानाज्ञां कारयतीत्यतः किमस्माभिर्विधेयमित्यतस्तेषामङ्गारदाहकदृष्टान्तं प्रदर्श्य न कथञ्चिज्जन्तोर्भोगेच्छा निवर्तते इत्यर्थगर्भमिदमध्ययनं कथितं प्रतिपादितं तेऽप्येतच्छ्रुत्वा संसारासारतामवगम्य विषयाणां च कटुविपाकतां निःसारतां च ज्ञात्वा मत्तकरिकर्णवच्चपलमायुर्गिरिनदीवेगसमं यौवनमित्यतो भगवदाजैव श्रेयस्करीति तदन्तिके सर्वे प्रव्रज्यां गृहीतवन्त इति । अत्र 'उद्देसे निद्देसे य' इत्यादिः सर्वोऽप्युपोद्घातो भणनीयः ॥३९॥
टीकार्थ - अब करण के निक्षेप के विषय में कहते हैं। नाम और स्थापना बार-बार कहे गये हैं, इसलिए उन्हें छोड़कर द्रव्यविदारण बताया जाता है । काष्ठ आदि को विदारण करनेवाले कुठार आदि द्रव्यविदारण है और दर्शन, ज्ञान, तप तथा संयम ये भाव विदारण हैं, क्योंकि कर्म को विदारण करने का सामर्थ्य इन्हीं में विद्यमान है। अब विदारण करने योग्य वस्तु का निक्षेप बतलाते हैं। नाम और स्थापना को छोड़कर द्रव्य और भावविदारणीय पदार्थ बताये जाते हैं। काष्ठ आदि पदार्थ द्रव्य विदारणीय हैं और आठ प्रकार के कर्म भाव विदारणीय हैं ॥३७॥
अब वैतालीय शब्द की व्याख्या करने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं । इस अध्ययन में कर्मों को विदारण करने की रीतियाँ अनेकों बतायी गयी हैं, इसलिए इस अध्ययन को अर्थवश "विदारक' कहते हैं । अथवा इस अध्ययन का "वैतालीय" नाम है। यह नाम होने का कारण यह है कि वैतालीय नाम का एक छन्दोविशेष होता है, उसी छन्द में इस अध्ययन की रचना की गयी है, इसलिए इसका नाम 'वैतालीय' है। इस वैतालीय छन्द का लक्षण यह है कि -
(वैतालीयं) जिस वृत्त के प्रत्येक पाद के अन्त में रगण, लघु और गुरु हों, तथा प्रथम और तृतीय पाद में छ: छ: मात्रायें हों एवं द्वितीय और चतुर्थ पाद में आठ आठ मात्रायें हों एवं सम संख्यावाला लघु परवर्ण से गुरु न किया जाता हो तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में लगातार छः लघु न हों उसे 'वैतालीय छन्द कहते हैं ||३८|
अब नियुक्तिकार अध्ययन का उपोद्घात (अवतरण) दिखाने के लिए कहते हैं । इस गाथा में 'काम' शब्द स्वीकार अर्थ में आया है । यद्यपि सभी आगम शाश्वत अर्थात् नित्य हैं, अतः आगमों के अन्तर्गत अध्ययन भी नित्य हैं, तथापि भरत चक्रवर्ती के द्वारा आज्ञाकराये हुए, भगवान् ऋषभदेवजी के ९८ अट्ठाणुं पुत्रों ने अष्टापद पर्वत पर स्थित उत्पन्नदिव्यज्ञानी भगवान् ऋषभदेवजी से पूछा था कि- हे भगवन् ! भरत हम लोगों से अपनी आज्ञा पालन कराना चाहता है, हमें क्या करना चाहिए ? सो आप उपदेश कीजिए तब भगवान् आदि 1. ओजे षण्मात्रा र्लगन्ता युज्यष्टौ न युजि षट् संततं ला न समः परेण गौ वेतालियम- (छन्दोऽनुशासने अ. ३-५३) तद्वैतालियं छन्दः यत्र रगण
लघुगुरुप्रान्ताः प्रथमतृतीययो षट् द्वितीयचतुर्थयोरष्टौ मान्त्राः, अत्र समसङ्ख्यको लघुर्न परेण गुरुः कार्यः इतथाविषमपादयो षट् ला निरन्तरा नेति वैतालीयार्थः। 2. यद्यपि विंशत्यायेति वचनात्स्यादत्र स्त्रीत्वमेकवचन्तन्वितं तथापि प्रतिपुत्र प्रश्रोत्तरपार्थक्यविवरायाऽत्रबहुत्वं । चैत्रमैत्राभ्यामेकविंशती दत्तमितिवत् ।
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