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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशके: गाथा १
हिताहितप्राप्तिपरिहारवर्णनाधिकारः ऋषभदेवजी ने अपने पुत्रों को अग्नि का दृष्टान्त देकर यह उपदेश दिया था कि जैसे काष्ठ से अग्नि की तृप्ति नहीं होती है, इसी तरह विषय भोगने से मनुष्य की इच्छा निवृत्ति नहीं होती है, यही उपदेश इस अध्ययन में कहा गया है। इसके पश्चात् श्री ऋषभदेवजी का उपदेश सुनकर उनके ९८ पुत्रों ने संसार को असार और विषय भोग को कटुफल तथा सार रहित एवं मतवाले हाथी के कान के समान आयु को चञ्चल और पहाड़ी नदी के समान युवावस्था को अस्थिर जानकर भगवान् की आज्ञा पालन करने में ही कल्याण है, यह समझकर उनके पास प्रव्रज्या ग्रहण की थी। यहाँ भी 'उद्देसे निद्देसे य' इत्यादि सभी उपोद्घात कहने चाहिए ||३९||
साम्प्रतमुद्देशार्थाधिकारं प्रागुल्लिखितं दर्शयितुमाह -
पढमे संबोहो' अनिच्चया य, बीयंमि माणवज्जणया । अहिगारो पुण भणिओ, तहा तहा बहुविहो तत्थ ॥४०॥ नि० उद्देसंमि य तइए अन्नाणचियस्स अवचओ भणिओ । वज्जेयव्यो य सया सुहप्पमाओ जइजणेणं ॥ ४१ ॥ नि०
तत्र प्रथमोद्देशके हिताहितप्राप्तिपरिहारलक्षणो बोधो विधेयोऽनित्यता चेत्ययमर्थाधिकारः द्वितीयोद्देशके मानो वर्जनीय इत्ययमर्थाधिकारः पुनश्च तथा तथाऽनेकप्रकारो बहुविधं शब्दादावर्थेऽनित्यतादिप्रतिपादकोऽर्थाधिकारो भणित इति, तृतीयोदेशके - ऽज्ञानोपचितस्य कर्मणोऽपचयरूपोऽर्थाधिकारो भणित इति यतिजनेन च सुखप्रमादो वर्जनीयः सदेति ॥ ४०-४१ ॥
अब नियुक्तिकार पहले कहे हुए उद्देशकों का अर्थाधिकार दिखाने के लिए कहते हैं । प्रथम उद्देशक में कहा है कि मनुष्य को हित की प्राप्ति और अहित के त्याग का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, तथा इस जगत् को अनित्य समझना चाहिए । द्वितीय उद्देशक में कहा है कि मनुष्य को मान का त्याग करना चाहिए । तथा शब्द आदि में और अर्थ में अनेक प्रकार से अनित्यता का प्रतिपादन भी द्वितीय उद्देशक में किया गया है । तृतीय उद्देशक में कहा है कि अज्ञान के द्वारा वृद्धि को प्राप्त कर्मों का नाश करना आवश्यक है, इसलिए साधु को सुख और प्रमाद त्याग देने चाहिए ||४० - ४१ ॥
साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम् -
सूत्रानुगम में अस्खलित आदि गुणो के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए वह सूत्र यह है । संबुज्झह किं न बुज्झह ? संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । हूवणमंत राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवियं
छाया - संबुध्यध्वं किं न बुध्यध्वं १ सम्बोधिः खलु प्रेत्य दुर्लभा । नोहूपनमन्ति रात्रयः, नो सुलभं पुनरपि जीवितम् ॥
॥१॥
व्याकरण - (संबुज्झह) क्रिया (न) अव्यय (खलु) अव्यय (संबोही) कर्ता ( पेच्च) पूर्वकालिक क्रिया (दुल्लहा ) संबोधि का विशेषण (गो, हु) अव्यय ( उवणमंति) क्रिया (राइओ) कर्ता (नो) अव्यय ( सुलभं) जीवित का विशेषण (पुणरावि) अव्यय ( जीवियं) कर्ता ।
अन्वयार्थ - (संबुज्झह) हे भव्यों ! तुम बोध प्राप्त करो (किं न बुज्झह) क्यों नहीं बोध प्राप्त करते ( पच्च) मरने के पश्चात् (संबोही) बोध प्राप्त करना (दुल्लहा खलु) दुर्लभ है । (राइओ) व्यतीत रात्रि ( णो हूवणमंति) लौटकर नहीं आती है (जीवियं) और संयमजीवन (पुणरावि) फिर (नो सुलभं ) सुलभ नहीं है ।
भावार्थ - हे भव्यों । तुम बोध प्राप्त करो, तुम क्यों नहीं बोध प्राप्त करते ? जो रात्रि व्यतीत हो गयी है, वह फिर लौटकर नहीं आती है और संयम जीवन फिर सुलभ नहीं है ।
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टीका - तत्र भगवान् आदितीर्थङ्करो भरततिरस्कारागतसंवेगान् स्वपुत्रानुद्दिश्येदमाह, यदि वा सुरासुरनरोरगतिरश्चः समुद्दिश्य प्रोवाच यथा - संबुध्यध्वं यूयं ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणे धर्मे बोधं कुरुत, यतः पुनरेवंभूतोऽवसरो दुराप:, तथाहि मानुषं जन्म तत्राऽपि कर्मभूमिः पुनरार्यदेशः सुकुलोत्पत्तिः सर्वेन्द्रियपाटवं श्रवणश्रद्धादिप्राप्तौ सत्यां
1. संबोधि चूर्णि । 2. ततिए मिच्छत्तचित्तस्य चू. । 3. भो ! संबुज्झह चू. ।