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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा १३
परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः छाया - समितस्तु सदा साधुः पञ्चसंवरसंवृतः । सितेष्वसितो भिक्षुरामोक्षाय परिव्रजेदिति ब्रवीमि ॥ व्याकरण - (समिए, पंचसंवरसंवुडे) साधु के विशेषण (हि, सया) अव्यय (सिएहि ) अधिकरण (असिए) साधु का विशेषण (आमोक्षाय ) चतुर्थ्यन्त (परिव्वज्जासि) क्रिया (त्ति) अव्यय (बेमि) क्रिया ।
अन्वयार्थ - ( भिक्खू) भिक्षणशील (साहू) साधु (सया) सदा (समिए) समिति से युक्त और (पंचसंवरसंवुडे) पांच संवर से गुप्त रहता हुआ (सिएहि ) गृह पाश में बँधे हुए गृहस्थों में (असिए) मूर्च्छा न रखता हुआ (आमोक्खाय) मोक्ष पर्य्यन्त (परिव्वज्जासि ) संयम का अनुष्ठान करे (त्ति बेमि) यह मैं कहता हूँ ।
भावार्थ - भिक्षणशील साधु, समिति से युक्त और पांच संवरों से गुप्त होकर गृहस्थों में मूर्च्छा न रखता हुआ मोक्ष की प्राप्ति पर्य्यन्त संयम का पालन करे यह श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि यह मैं भगवान का कहा हुआ कहता हूँ ।
टीका - तुरवधारणे, पञ्चभि: समितिभिः समित एव साधुः, तथा प्राणातिपातादिपञ्चमहाव्रतोपेतत्वात्पञ्चप्रकारसंवरसंवृतः, तथा मनोवाक्कायगुप्तिगुप्तः, तथा गृहपाशादिसु सिता:- बद्धाः अवसक्ताः गृहस्थास्तेष्वसितः - अनवबद्धस्तेषु मूर्च्छामकुर्वाणः पङ्काधारपङ्कजवत्तत्कर्मणाऽदिह्यमानो भिक्षुः- भिक्षणशीलो भावभिक्षुः आमोक्षाय अशेषकर्मापगमलक्षणमोक्षार्थं परि समन्तात् व्रजेः- संयमानुष्ठानरतो भवेस्त्वमिति विनेयस्योपदेशः इति : अध्ययनसमाप्तौ । ब्रवीमीति गणधर एवमाह, यथा तीर्थकृतोक्तं तथैवाहं ब्रवीमि न स्वमनीषिकयेति । गतोऽनुगमः । साम्प्रतं नयास्तेषामयमुपसंहारः" सव्वेसि पि नयाणं, बहुविधवत्तव्वयं निसामिता । तं सव्वणयविसुद्धं जं चरणगुणट्ठिओ साहू ?” || १३ ॥८८॥
इति सूत्रकृताङ्गे समयाख्यं प्रथमाध्ययनं समाप्तम् ।
टीकार्थ यहाँ तु शब्द अवधारणार्थक है । साधु सदा पांच प्रकार की समितियों से युक्त होकर रहे । एवं प्राणातिपात विरमण आदि पांच महाव्रतों से युक्त रहता हुआ साधु सदा पांच संवरों से गुप्त रहे । एवं मन, वचन और काया से सदा गुप्त रहे । गृह पाश में बँधे हुए गृहस्थों में साधु मूर्च्छा न करे। जैसे कीचड़ में रहता हुआ भी कमल कीचड़ से लिप्त नहीं होता है, उसी तरह गृहस्थों में निवास करता हुआ भी साधु उनके कर्म से लिप्त न हो। इस प्रकार भिक्षणशील अर्थात् हे भावभिक्षो ! समस्त कर्मों का क्षय करने के लिए सदा संयम के अनुष्ठान में रत रहो, यह शिष्य के प्रति उपदेश है । यहाँ 'इति' शब्द अध्ययन की समाप्ति का द्योतक है। 'ब्रवीमि ' मैं कहता हूँ यह गणधर कहते हैं । गणधर कहते हैं कि तीर्थंकर ने जैसा मुझ से कहा है, वैसा ही मैं कहता हूँ, अपनी इच्छा से नहीं कहता । अनुगम समाप्त हुआ अब नयों का अवसर है।
( सव्वेसिं) सब नयों का बहुविध वक्तव्य को सुनकर, उसी को सर्वनयविशुद्ध मानना चाहिए जिसको क्रिया और ज्ञान में स्थित साधु विशुद्ध मानते हैं ||१३||८८||
श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्र का समय नामक प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ ।