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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा ६
तदेव विशिनष्टि विपरीता परमार्थादन्यथाभूता या प्रज्ञा तया सम्भूतं समुत्पन्नं तत्त्वविपर्यस्तबुद्धिग्रथितमिति यावत्, पुनरपि विशेषयति- अन्यैरविवेकिभिर्यदुक्तं तद्नुगं, यथावस्थितार्थविपरीतानुसारिभिर्यदुक्तं विपरीतार्थाभिधायितया तद्नुगच्छतीत्यर्थः
॥५॥
परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः
टीकार्थ पाखण्डी अथवा पौराणिकों के वाद- कथा को 'लोकवाद' कहते हैं । अथवा अपनी इच्छानुसार विपरीत मान्यता को 'लोकवाद' कहते हैं । उस लोकवाद को सुनना चाहिए, जानना चाहिए यह अर्थ है । यही शास्त्रकार दिखाते हैं- इस संसार में किन्हीं का यह सिद्धान्त है । वह लोकवाद कैसा है ? सो शास्त्रकार विशेषण के द्वारा बतलाते हैं। वह लोकवाद, परमार्थ से विपरीत बुद्धि के द्वारा रचित है अर्थात् वह तत्त्वज्ञान से विपरीत ज्ञान के द्वारा सम्पादित है । फिर शास्त्रकार लोकवाद का विशेषण बतलाते हैं- दूसरे अविवेकियों ने जो असत्य अर्थ बतलाया है, उसी का लोकवाद भी अनुगामी है । आशय यह है कि- पदार्थों का सच्चा स्वरूप न बताकर विपरीत स्वरूप बतानेवाले अविवेकियों ने जो मिथ्या अर्थ बतलाया है, उसके समान ही विपरीत अर्थ बताने के कारण वह लोकवाद भी उसी का अनुगामी है ||५||
तमेव विपर्य्यस्तबुद्धिरचितं लोकवादं दर्शयितुमाह
विपरीत बुद्धि के द्वारा रचित उसी लोकवाद को दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं अणते निइए लोए, सासए ण विणस्सती ।
अंतवं णिइए लोए, 1 इति धीरोऽतिपासइ
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॥६॥
छाया -
अनन्तो नित्यो लोकः शाश्वतो न विनश्यति । अन्तवानित्यो लोक इति धीरोऽतिपश्यति ॥ व्याकरण - ( अनंते, निइए, सासए) ये सब लोक के विशेषण हैं। (लोए) कर्ता (ण) अव्यय (विणस्सती) क्रिया (अंतवं, णिइए) लोक के विशेषण हैं (इति) अव्यय (धीरो) कर्ता (अतिपासइ) क्रिया ।
अन्वयार्थ - ( लोए) यह लोक (अनंते) अनन्त ( निइए) नित्य (सासए) और शायत है (ण विणस्सती) यह नष्ट नहीं होता है (लोए) तथा यह लोक (अंतवं) अन्तवाला (निइए) तथा नित्य है (इति) यह ( धीरो) धीर पुरुष (अतिपासइ) अत्यन्त देखते हैं ।
भावार्थ - यह लोक अनन्त, नित्य और शाश्वत है, इसका विनाश नहीं होता है तथा यह लोक अन्तवान् (सीमित) और नित्य है । यह व्यास आदि धीर पुरुष देखते हैं ।
टीका नास्यान्तोऽस्तीत्यनन्तः, न निरन्वयनाशेन नश्यतीत्युक्तं भवतीति, तथाहि - यो यादृहि भवे स तादृगेव परभवेऽप्युत्पद्यते, पुरुषः पुरुष एवाङ्गना अङ्गनैवेत्यादि, यदि वा अनन्तोऽपरिमितो निरवधिक इति यावत्, तथा नित्य इति अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावो लोक इति, तथा शश्वद्भवतीति शाश्वतो द्वयणुकादिकार्य्यद्रव्यापेक्षयाऽशश्वद्भवन्नपि न कारणद्रव्यं परमाणुत्वं परित्यजतीति तथा न विनश्यतीति दिगात्माकाशाद्यपेक्षया । तथाऽन्तोऽस्यास्तीत्यन्तवान् लोक: 'सप्तद्वीपा वसुन्धरे' ति परिमाणोक्तः, स च तादृक् परिमाणो नित्य इत्येवं धीरः कश्चित्साहसिकोऽन्यथाभूतार्थप्रतिपादनाद् व्यासादिरिवाति पश्यतीत्यतिपश्यति । तदेवंभूतमनेकभेदभिन्नं लोकवादं निशामयेदिति प्रकृतेन सम्बन्धः । तथा 'अपुत्रस्य न सन्ति लोकाः, ब्राह्मणाः देवाः', श्वानो यक्षाः, गोभिर्हतस्य गोघ्नस्य वा न सन्ति लोका' इत्येवमादिकं निर्युक्तिकं लोकवादं निशामयेदिति ॥६॥
किञ्च -
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टीकार्थ - जिसका अन्त नहीं है, उसे अनन्त कहते हैं, आशय यह कि इस लोक का निरन्वय नाश नहीं होता है, क्योंकि इस भव में जो जैसा है, वह परभव में भी वैसा ही उत्पन्न होता है । पुरुष, पुरुष ही होता है और स्त्री, स्त्री ही होती है । अथवा यह लोक, अनन्त अर्थात् परिमाण रहित यानी अवधि वर्जित है । तथा यह लोक नित्य यानी उत्पत्ति विनाश रहित स्थिर एक स्वभाववाला है। एवं यह, सदा वर्तमान रहता है, इसलिए शाश्वत 1. एवं वीरोऽधिपासति चू. 1
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