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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा २ परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः पचनपाचनकण्डनपेषणादिको भूतोपमर्दकारी व्यापारस्तस्योपदेशस्तं गच्छन्तीति कृत्योपदेशगाः कृत्योपदेशका वा। यदिवा ‘सिया' इति आर्षत्वाद् बहुवचनेन व्याख्यायते स्युः भवेयुः कृत्यं - कर्तव्यं सावद्यानुष्ठानं तत्प्रधानाः कृत्या:गृहस्थास्तेषामुपदेशः- संरम्भसमारम्भारम्भरूपः स विद्यते येषां ते कृत्योपदेशिकाः, प्रव्रजिता अपि सन्तः कर्तव्यैगृहस्थेभ्यो न भिद्यन्ते, गृहस्था इव तेऽपि सर्वावस्थाः पञ्चसूनाव्यापारोपेता इत्यर्थः || १ ||
टीकार्थ इस सूत्र का अनन्तर सूत्र के साथ सम्बन्ध यह है- अनन्तर सूत्र में कहा है कि- "परतीर्थी असुर स्थानों में किल्बिषी होते हैं ।" क्यों होते है ? समाधान यह है कि वे परीषह और उपसर्गों से पराजित हैं। परस्पर सूत्र के साथ सम्बन्ध यह है । प्रथम श्लोक में कहा गया है कि- बोध प्राप्त करना चाहिए और बन्धन को तोड़ना चाहिए, अतः यह भी समझना चाहिए कि- “पञ्चभूत आदि वादी तथा गोशालकमतानुयायी आदि परतीथीं, परीषह, उपसर्ग तथा काम, क्रोध, लोभ, मान, मोह और मद नामक इन ६ शत्रुओं से पराजित हैं ।" इसी तरह दूसरे सूत्रों के साथ सम्बन्ध भी जानना चाहिए । इस प्रकार सम्बन्ध किये हुए, इस सूत्र की विस्तृत व्याख्या की जाती है । पञ्चभूतवादी, एकात्मवादी, तज्जीवतच्छरीरवादी, कृतवादी तथा त्रैराशिक गोशालक मतानुयायी ये सब रागद्वेष आदि तथा शब्दादि विषय और प्रबल महा मोह से उत्पन्न अज्ञान के द्वारा पराजित हैं । 'भो' शब्द शिष्य के सम्बोधन के लिए है । हे शिष्य ! तुम को यह जानना चाहिए कि- ये अन्यतीर्थी असत् उपदेश में प्रवृत्त है, इसलिए ये दूसरे की रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। ऐसा क्यों ? क्योंकि ये लोग बालक के समान अज्ञानी हैं । जैसे बालक सत् और असत् का विवेक न होने के कारण सब कुछ कर डालते है और सब कुछ कह देते हैं, इसी तरह ये अज्ञानी भी स्वयं अज्ञानी होते हुए दूसरे को भी मोहित करते हैं। ये, अज्ञानी होकर भी अपने को पण्डित भी मानते हैं । कहीं-कहीं "जत्थ बालेऽवसीयइ" यह पाठ मिलता है । इसका अर्थ यह है- जिस अज्ञान में पड़कर अज्ञ जीव दुःखित होते हैं, उसी अज्ञान में ये अन्यतीर्थी पड़े हैं, अतः किसी की रक्षा करने में ये लोग समर्थ नहीं हो सकते हैं । ये अन्यतीर्थी जो विपरीत आचरण करते हैं, सो इस गाथा का उत्तरार्ध के द्वारा बताया जाता है। 'णं' शब्द वाक्य के अलङ्कार में आया है। ये अन्यतीर्थी धन, धान्य और बन्धु बान्धव आदि के सम्बन्ध को छोड़कर "हम निःसङ्ग तथा प्रव्रजित हैं ।" यह कहते हुए मोक्ष के लिए उद्यत होते हैं, परन्तु पीछे से परिग्रह और आरम्भ में आसक्त रहने वाले गृहस्थों के कर्तव्य का अर्थात् पचन, पाचन, कण्डन ( कूटना) और पेषण (पीसना ) आदि जीवों के विनाशक व्यापार का उपदेश करते हैं । अथवा इस गाथा में 'सिया' इस पद को आर्ष होने के कारण बहुवचन मानकर व्याख्या की जाती है। इसका अर्थ यह है कि- " वे अन्यतीर्थी (वे सावध अनुष्ठानवाले) होते हैं ।" कृत्य नाम कर्तव्य का अर्थात् सावद्य अनुष्ठान का है। वह सावद्य अनुष्ठान जो प्रधान रूप से करते हैं, वे 'कृत्य' कहलाते हैं । कृत्य नाम गृहस्थों का है। उन गृहस्थों को ये लोग संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ रूप व्यापारों का उपदेश करते हैं, इसलिए ये 'कृत्योपदेशिक' हैं । ये प्रव्रज्या धारण किये हुए भी गृहस्थों से भिन्न नहीं, किन्तु उनके समान ही सब अवस्थावाले और पांच शूना के व्यापार से युक्त हैं॥ १ ॥
एवम्भूतेषु च तीर्थिकेषु सत्सु भिक्षुणा यत्कर्तव्यं तद्दर्शयितुमाह
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ऐसे अन्य तीर्थियों के होते हुए साधु का जो कर्तव्य है, उसे दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं तं च भिक्खू परिन्नाय, 2 वियं तेसु ण मुच्छए ।
अणुक्कसे अप्पलीणे मज्झेण मुणि जाव
॥२॥
छाया - तं च भिक्षुः परिज्ञाय विद्वांस्तेषु न मूर्च्छत् । अनुत्कर्षोऽप्रलीनः मध्येन मुनिर्यापयेत् ॥
व्याकरण - ( भिक्खू ) कर्ता (वियं) भिक्षु का विशेषण (तं) अन्यतीर्थी का बोधक सर्वनाम कर्म द्वितीयान्त (च) अव्यय ( परिन्नाय)
1. पञ्चशूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भय वध्यन्ते यास्तु वाहयन् ।। (मनुस्मृति ३ / ६८)
गृहस्थ के घर में पांच बुचड़खाने होते हैं वे ये हैं - चुल्ली, चक्की, झाडू, ऊखली, जल का स्थान । इसके द्वारा जीवों की हिंसा होती है, अतः ये पांच बुचड़खाने के समान है, इन्हीं को 'पञ्चशूना' कहते हैं। 2. विज्जं चू. । 3. मज्झिमेण चू. ।
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