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सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशके गाथा १६
परतीर्थिपरित्यागकारणाधिकारः
व्याकरण - (असंवुडा) कर्ता (अणादियं ) कर्म (भमिहिंति) क्रिया (पुणो पुणो ) अव्यय (कप्पकालं) क्रिया विशेषण (आसुरकिब्बिसिया ठाणा ) कर्ता ( उवज्जति) क्रिया ।
अन्वयार्थ - ( असंवुडा) इन्द्रियविजय से रहित वे अन्यदर्शनी (अणादीयं) आदि रहित संसार में (पुणो पुणो ) बार-बार ( भमिर्हिति ) भ्रमण करेंगे । तथा (कप्पकालं) चिरकाल तक (आसुरकिब्बिसिया ठाणा) असुरस्थान में किल्बिषी रूप से ( उवज्जति) वे उत्पन्न होते हैं । भावार्थ - इन्द्रिय विजय से रहित वे अन्यदर्शनी बार-बार संसार में भ्रमण करते रहेगें। वे बाल तप के प्रभाव से असुर स्थानों में बहुत काल तक रहने वाले किल्बिषी देवता होते हैं ।
टीका - ते हि पाखण्डिकाः मोक्षाभिसन्धिना समुत्थिता अपि असंवृता इन्द्रियनोइन्द्रियैरसंयताः, इहाप्यस्माकं लाभ इन्द्रियानुरोधेन सर्वविषयोपभोगाद्, अमुत्र मुक्त्यवाप्तेः, तदेवं मुग्धजनं प्रतारयन्तोऽनादिसंसारकान्तारं भ्रमिष्यन्ति पर्य्यटिष्यन्ति स्वदुश्चरितोपात्तकर्मपाशावशापि (पाशि) ताः पौनःपुन्येन नरकादियातनास्थानेषूत्पद्यन्ते । तथाहि - नेन्द्रियैरनियमितैरशेषद्वन्द्वप्रच्युतिलक्षणा सिद्धिरवाप्यते । याऽप्यणिमाद्यष्टगुणलक्षणैहिकी सिद्धिरभिधीयते साऽपि मुग्धजनप्रतारणाय दम्भकल्पैवेति । याऽपि च तेषां बालतपोऽनुष्ठानादिना स्वर्गावाप्तिः साऽप्येवंप्राया भवतीति दर्शयति- कल्पकालं प्रभूतकालम् उत्पद्यन्ते संभवन्ति आसुरा:- असुरस्थानोत्पन्ना नागकुमारादयः, तत्राऽपि न प्रधाना किं तर्हि ? किल्बिषिकाः अधमाः प्रेष्यभूता अल्पर्द्धयोऽल्पभोगाः स्वल्पायुः सामर्थ्याद्युपेताश्च भवन्तीति । इति उद्देशक- परिसमाप्तयर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥१६॥ ७५ ॥ इति समयाख्याध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः समाप्तः ।
टीकार्थ वे पाखण्डी मोक्ष प्राप्ति के लिए उद्यत होकर भी इन्द्रिय और मन को वश में नहीं रखते हैं । ( वे समझते हैं कि ) इस लोक में भी हमे लाभ है क्योंकि इन्द्रियों के अनुरोध से सब विषयों का उपभोग करने से परलोक में मुक्ति की प्राप्ति होती है । इस प्रकार भोले जीव को प्रतारण करते हुए वे पाखण्डी, आदि रहित संसार रूप कान्तार में भ्रमण करते रहेंगे । वे अपने दुराचार के कारण उत्पन्न कर्मपाश में बद्ध होकर बार-बार नरक आदि यातनास्थानों में उत्पन्न होते हैं, क्योंकि इन्द्रियों को वशीभूत किये बिना समस्त दुःखों से निवृति रूप मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है । वे जो अणिमा आदि आठ प्रकार की ऐहिक ( इस लोक की) सिद्धियों का वर्णन करते हैं, वह भी भोले जीवों को प्रतारण करने के लिए दम्भतुल्य ही है । उन पाखण्डियों को बाल तप के प्रभाव से जो स्वर्ग की प्राप्ति होती है, वह भी इस प्रकार की होती है, यह दिखाते हैं- वे बहुत काल तक असुरस्थानों में नागकुमार आदि अल्प ऋद्धिवाले अल्प आयु और अल्प शक्ति युक्त किल्बिषि अधम प्रेष्यभूत ( नौकर ) देवता होते हैं, प्रधान देवता नहीं होते हैं । इति शब्द उद्देशक की समाप्ति के लिए है 'ब्रवीमि' पूर्ववत् है ।
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इति समयाध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः समाप्तः । समय अध्ययन का तृतीय उद्देशक पूर्ण हुआ ||