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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशके गाथा १४
परसमयवक्तव्यतायांशैवाद्यधिकारः (इह, एव) अव्यय (वसवत्ती) कर्ता (सव्वकामसमप्पिए) कर्ता का विशेषण ।
अन्वयार्थ - (सए सए) अपने-अपने (उवट्ठाणे) अनुष्ठान में ही (सिद्धिं) सिद्धि होती है (अन्नहा न) अन्यथा नहीं होती है (अहो) मोक्ष प्राप्ति के पूर्व (इहेव) इसी जन्म में ही (वसवत्ती) जितेन्द्रिय होना चाहिए (सव्वकामसमप्पिए) उसकी सब कामनायें सिद्ध होती हैं।
भावर्थ - मनुष्यों को अपने-अपने अनुष्ठान से ही सिद्धि मिलती है ओर तरह से नहीं मिलती है । मोक्ष प्राप्ति के पूर्व मनुष्य को जितेन्द्रिय होकर रहना चाहिए । इस प्रकार उसकी सब कामनायें पूर्ण होती हैं।
टीका - ते कृतवादिनः शैवैकदण्डिप्रभृतयः स्वकीये स्वकीये उपतिष्ठन्त्यस्मिन्नित्युपस्थान-स्वीयमनुष्ठानं दीक्षागुरुचरणशुश्रूषादिकं तस्मिन्नेव सिद्धिम् अशेषसांसारिकप्रपञ्चरहितस्वभावामभिहितवन्तो नान्यथा नाऽन्येन प्रकारेण सिद्धिरवाप्यत इति तथाहि-शैवाः दीक्षात एव मोक्ष इत्येवं व्यवस्थिताः, एकदण्डिकास्तु पञ्चविंशतितत्त्वपरिज्ञानान्मुक्तिरित्यभिहितवन्तः, तथाऽन्येऽपि वेदान्तिकाः ध्यानाध्ययनसमाधिमार्गानुष्ठानात् सिद्धिमुक्तवन्त इत्येवमन्येऽपि यथास्वं दर्शनान्मोक्षमार्ग प्रतिपादयन्तीति । अशेषद्वन्द्वोपरमलक्षणायाः सिद्धिप्राप्तेरधस्तात्-प्रागपि यावदद्यापि सिद्धिप्राप्ति नं भवति तावदिहैव जन्मन्यस्मदीयदर्शनोक्तानुष्ठानानुभावादष्टगुणैश्वर्य्यसद्धावो भवतीति दर्शयति- आत्मवशे वर्तितुंशीलमस्येति वशवर्ती वशेन्द्रिय इत्युक्तम्भवति, न ह्यसौ सांसारिकैः स्वभावैरभिभूयते, सर्वे कामा अभिलाषा अर्पिताः सम्पन्ना यस्य स सर्वकामसमर्पितो, यान् यान् कामान् कामयते ते तेऽस्य सर्वे सिद्धयन्तीति यावत्, तथाहि सिद्धरारादष्टगुणैश्वर्य्यलक्षणा सिद्धि भवति । तद्यथा- अणिमा, लघिमा महिमा प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वमप्रतिघातित्वं यत्र कामावसायित्वमिति ॥१४॥
टीकार्थ - वे कृतवादी शैव और एकदण्डी वगैरह कहते है कि- "दीक्षा ग्रहण करना और गुरुचरण की सेवा आदि अपने-अपने अनुष्ठानों से ही मनुष्य, समस्त सांसारिक प्रपञ्चों से रहित मुक्ति को प्राप्त करता है। दूसरे प्रकार से सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती है।" क्योंकि शैवलोग दीक्षा से ही मोक्ष मानते हैं और एकदण्डी लोग पचीस तत्त्वों के ज्ञान से मुक्ति बतलाते हैं तथा दूसरे वेदान्ती भी कहते हैं कि- ध्यान, अध्ययन और समाधि मार्ग के अनुष्ठान से सिद्धि होती है । इसी तरह दूसरे दार्शनिक भी अपने-अपने दर्शन से मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन करते हैं । तथा वे कहते हैं कि- समस्त द्वन्द्व की निवृत्ति रूप मोक्ष प्राप्ति के पूर्व इसी जन्म में हमारे दर्शन के अनुष्ठान से आठ प्रकार की ऐश्वर्य्यवाली सिद्धि प्राप्त होती है। यहीं यहाँ शास्त्रकार दिखलाते हैं। जो पुरुष अपने वश में रहता है अर्थात् जो इन्द्रियों के वश में नहीं है, वह पुरुष, सांसारिक स्वभाव से अभिभूत नहीं होता है । उसकी सब कामनायें पूर्ण होती हैं । वह पुरुष, जो-जो कामनायें करता है, वे सब सिद्ध होती हैं। उस पुरुष को मोक्ष पाने के पहले आठ प्रकार की ऐश्वर्यवाली जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे ये हैं- अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघातित्व और यत्र कामावसायित्व॥१४॥
- तदेवमिहैवास्मदुक्तानुष्ठायिनोऽष्टगुणैश्वर्यलक्षणा सिद्धिर्भवत्यमुत्रचाशेषद्वन्द्वोपरमलक्षणा सिद्धिर्भवतीति दर्शयितुमाह
- इस प्रकार वे अन्यदर्शनी कहते हैं कि हमारे दर्शन में कहे हुए नियमों का अनुष्ठान करनेवाले पुरुष को इसी जन्म में आठ गुण ऐश्वर्यवाली सिद्धि प्राप्त होती है और परलोक में सम्पूर्ण द्वन्द्व की निवृत्ति रूप मोक्ष प्राप्त होता है, यह दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - सिद्धा य ते अरोगा य, इहमेगेसिमाहियं । 1. योगविद्या के प्रभाव से योगिजन को ऐसी सिद्धि प्राप्त होती है कि वे अपने शरीर को परमाणु के समान सूक्ष्म बना देते हैं। इसी शक्ति को
'अणिमा' कहते हैं। 2. (लघिमा) योग विद्या के प्रभाव से अपने शरीर को रूई के समान हल्का बना देने की शक्ति को लघिमा कहते हैं। 3. (महिमा) योग बल से अपने शरीर को बड़ा से बड़ा बना देना 'महिमा' कहलाता है। 4. (प्राकाम्य) योग विद्या के प्रभाव से इच्छा की सफलता
को 'प्राकाम्य' कहते हैं । 5. (ईशित्व) शरीर और मन पर पूरा अधिकार हो जाना 'ईशित्व' कहलाता है। 6. (वशित्व) योग विद्या के प्रभाव से प्राणियों को वशीभूत कर लेना 'वशित्व' कहलाता है। 7. (अप्रतिघातित्व) योग के प्रभाव से किसी वस्तु से न रोका जाना 'अप्रतिघातित्व कहलाता है । 8. (यत्र कामावसायित्व) जिस वस्तु को भोगने की इच्छा हो उसे इच्छा पूरी होने तक नष्ट न होने देना (यत्रकामावसायित्व) कहलाता है।