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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशके गाथा १४
परसमयवक्तव्यतायां कृतवादाधिकारः व्याकरण - (मेधावी ) कर्ता ( एता) कर्म (अणुवीति) पूर्वकालिक क्रिया (बंभचेरे) अधिकरण (ण) अव्यय (ते) कर्ता (वसे) क्रिया (पुढो) अव्यय (पावाउया) कर्ता (सव्वे) प्रावादुक का विशेषण सर्वनाम (सयं सयं) कर्म (अक्खायारो) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (मेधावी) बुद्धिमान् पुरुष ( एताणुवीति ) इन लोगों का विचारकर यह निश्चय करे कि (ते बंभचेरे ण वसे) वे अन्य तीर्थी ब्रह्मचर्य में स्थित नहीं है (सव्वे पावाउया) सब प्रावादुक (पुढो) अलग-अलग (सयं सयं) अपने अपने सिद्धान्त को (अक्खायारो) अच्छा बतलाते
हैं ।
भावार्थ - बुद्धिमान् पुरुष, इन अन्यतीर्थियों का विचारकर यह निश्चय करे कि ये लोग ब्रह्मचर्य (संयम- सदाचार) पालन नहीं करते हैं तथा ये सभी प्रावादुक, अपने-अपने सिद्धान्त को अच्छा बतलाते हैं ।
टीका एतान् पूर्वोक्तान् वादिनोऽनुचिन्त्य मेधावी प्रज्ञावान् मर्य्यादाव्यवस्थितो वा एतदवधारयेत् यथा-नैते राशित्रयवादिनो देवोप्तादिलोकवादिनश्च ब्रह्मचर्य्ये तदुपलक्षिते वा संयमानुष्ठाने वसेयुः अवतिष्ठेरन्निति । तथाहितेषामयमभ्युपगमो यथा स्वदर्शनपूजानिकारदर्शनात्कर्मबन्धो भवति, एवं चावश्यं तद्दर्शनस्य पूजया तिरस्कारेण वोभयेन वा भाव्यं तत्सम्भवाच्च कर्मोपचयस्तदुपचयाच्च शुद्धयभावः शुद्धयभावाच्च मोक्षाभावः । न च मुक्तानामपगताशेषकर्मकलङ्कानां कृतकृत्यानामवगताशेषयथावस्थितवस्तुतत्त्वानां समस्तुतिनिन्दानामपगतात्मात्मीयपरिग्रहाणां रागद्वेषानुषङ्गः, तदभावाच्च कुतः पुनः कर्मबन्ध: ? तद्वशाच्च संसारावतरणमित्यर्थः अतस्ते यद्यपि कथञ्चिद् द्रव्यब्रह्मचर्य्ये व्यवस्थितास्तथापि सम्यग्ज्ञानाभावान्न ते सम्यगनुष्ठानभाज इति स्थितम् । अपि च सर्वेऽप्येते प्रावादुकाः स्वकं स्वकम् आत्मीयमात्मीयं दर्शनं स्वदर्शनानुरागादाख्यातार: शोभनत्वेन प्रख्यापयितार इति, न च तत्र विदितवेद्येनास्था विधेयेति ॥ १३ ॥
टीकार्थ मर्यादा में स्थित अथवा बुद्धिमान् पुरुष, पूर्वोक्त इन प्रावादुकों का विचारकर यह निश्चय करे कि "ये राशित्रयवादी (आत्मा की तीन अवस्था मानने वाले) और इस लोक को देवता द्वारा उत्पन्न माननेवाले लोग ब्रह्मचर्य में अथवा संयम के अनुष्ठान में स्थित नहीं हैं ।" इन लोगो का सिद्धान्त है कि "अपने दर्शन की पूजा और तिरस्कार देखने से मुक्तजीव को कर्मबन्ध होता है ।" परन्तु इनके दर्शन की पूजा या तिरस्कार तथा पूजा और तिरस्कार ये दोनों ही हुए बिना नहीं रह सकते हैं और इनके होने पर कर्म का उपचय भी अवश्य होगा और कर्म के उपचय होने से शुद्धि का अभाव होगा, शुद्धि के अभाव होने से मोक्ष नहीं हो सकता है । अतः यह सिद्धान्त ठीक नहीं है, क्योंकि जिनके समस्त कर्मकलंक नष्ट हो चुके हैं, तथा समस्त पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जो जानते हैं, जो कृतकृत्य हो चुके हैं, स्तुति और निन्दा को जो समान समझते हैं, "यह मैं हूँ और यह मेरा हैं" यह परिग्रह जिन का नष्ट हो चुका है, ऐसे मुक्त जीवों को राग-द्वेष होना कदापि सम्भव नहीं है और राग-द्वेष न होने से उनको कर्मबन्ध कैसे हो सकता है ? और कर्मबन्ध न होने से वे मुक्तजीव फिर संसार में कैसे आसकते हैं ? अतः इस असत् सिद्धान्त को माननेवाले वे अन्यतीर्थी यद्यपि द्रव्य ब्रह्मचर्य्य में कथञ्चित् स्थित रहते हैं; तथापि सम्यग् ज्ञान न होने से वे सम्यक् अनुष्ठान में प्रवृत्त नहीं है । तथा ये सभी प्रावादुक अपनेअपने दर्शन के अनुराग से अपने-अपने दर्शन को अच्छा बतलाते हैं, परन्तु वस्तु स्वरूप को जाननेवाले पुरुष को इनके दर्शनों में श्रद्धा नहीं करनी चाहिए ||१३||
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पुनरन्यथा कृतवादिमतमुपदर्शयितुमाह -
फिर शास्त्रकार कृतवादियों का मत अन्य तरह से बताने के लिए कहते हैं
सएसए उवद्वाणे, सिद्धिमेव न अन्नहा ।
1 अहो इहेव वसवत्ती सव्वकामसमप्पिए
छाया - स्वके स्वक उपस्थाने सिद्धिमेव नान्यथा । अथ इहैव वशवर्ती सर्वकामसमर्पितः ॥ व्याकरण - (सएसए) उपस्थान का विशेषण ( उवट्ठाणे) अधिकरण (सिद्धि) कर्म (एव) अव्यय (न, अत्रहा ) अव्यय ( अहो ) अव्यय
1. अधोधि होति ।
।।१४।।
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