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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशके गाथा ११-१२
साम्प्रतं प्रकारान्तरेण कृतवादिमतमेवोपन्यस्यन्नाह
अब सूत्रकार दूसरे प्रकार से कृतवादियों के मत को ही बताते हुए कहते हैं
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सुद्धे अपावए 1 आया, इहमेगेसिमाहियं ।
2 पुणो किड्डापदोसेणं सो तत्थ अवरज्झई
परसमयवक्तव्यतायां कृतवादाधिकारः
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।।११।।
छाया - शुद्धोऽपापक आत्मा, इहेकेषामाख्यातम् । पुनः कीडाप्रद्वेषेण स तत्रापराध्यति ॥
व्याकरण - (सुद्धे) आत्मा का विशेषण (अपावए) आत्मा का विशेषण ( आया) कर्ता (इह) अव्यय ( एगेसिं) कर्तृषष्ठ्यन्त (आहियं) क्रिया (पुणो ) अव्यय (किड्डापदोसेणं) हेतुतृतीयान्त (सो) कर्ता (तत्थ) अव्यय ( अवरज्झई) क्रिया ।
अन्वयार्थ – (इह) इस जगत् में (एगेसिं) किन्ही का (आहियं) कथन है कि ( आया) आत्मा (सुद्धे) शुद्ध (अपावए) और पाप रहित है ( पुणो ) फिर (सो) वह आत्मा (किड्डापदोसेणं) राग-द्वेष के कारण (तत्थ) वहीं (अवरज्झई) बंध जाता है ।
इह संवुडे मुणी जाए, पच्छा होइ अपावए ।
विडंबु जहा भुज्जो, नीरयं सरयं तहा
भावार्थ - इस जगत में किन्ही का कथन है कि आत्मा शुद्ध और पाप रहित हैं फिर भी वह राग-द्वेष के कारण बँध जाता है ।
टीका - इह अस्मिन् कृतवादिप्रस्तावे त्रैराशिकाः गोशालकमतानुसारिणो येषामेकविंशतिसूत्राणि पूर्वगतत्रैराशिक - सूत्रपरिपाटया व्यवस्थितानि । ते एवं वदन्ति - यथाऽयमात्मा शुद्धो मनुष्यभव एव शुद्धाचारो भूत्वा अपगताशेषमलकलङ्को मोक्षे अपापको भवति-अपगताशेषकर्मा भवतीत्यर्थः । इदमेकेषां गोशालकमतानुसारिणामाख्यातम् । पुनरसावात्मा शुद्धत्वाकर्मकत्वराशिद्वयावस्थो भूत्वा क्रीडया प्रद्वेषेण वा स तत्र मोक्षस्थ एव अपराध्यति रजसा श्लिष्यते । इदमुक्तं भवति तस्य हि स्वशासनपूजामुपलभ्यान्यशासनपराभवं चोपलभ्य क्रीडोत्पद्यते - प्रमोदः सञ्जायते, स्वशासनन्यक्कारदर्शनाच्च द्वेषः, ततोऽसौ क्रीडाद्वेषाभ्यामनुगतान्तरात्मा शनैः शनैर्निर्मलपटवदुपभुज्यमानो रजसा मलिनीक्रियते । मलीमसश्च कर्मगौरवाद्भूयः संसारेऽवतरति । अस्यां चावस्थायां सकर्मकत्वात्तृतीयराश्यवस्थो भवति ॥ ११॥ किञ्च -
टीकार्थ - जो आत्मा की तीन राशि अर्थात् तीन अवस्था बतलाता है, उसे त्रैराशिक कहते हैं । गोशालक मत के अनुयायी श्रमण आत्मा की तीन अवस्थायें मानते हैं, इसलिए वे ' त्रैराशिक' हैं । इन श्रमणों के पूर्वगत त्रैराशिक सूत्रों के क्रम से इक्कीस सूत्र हैं । इन कृतवादियों के प्रकरण में, गोशालक मतानुयायी श्रमण कहते है कि- यह आत्मा मनुष्यभव में ही शुद्ध आचरण वाला होकर मोक्ष में समस्त मलकलंक से रहित निष्पाप हो जाता है अर्थात् वह मोक्ष में समस्त कर्मों से रहित हो जाता है । यह गोशालक मतानुयायी श्रमण कहते हैं । इस प्रकार वह आत्मा शुद्धता और अकर्मता रूप दो अवस्थाओं में स्थित होकर फिर राग अथवा द्वेष के कारण मोक्ष में ही कर्म रज से लिप्त हो जाता है । आशय यह है कि उस आत्मा को अपने शासन की पूजा और परशासन का अनादर देखकर हर्ष उत्पन्न होता है तथा अपने शासन का अपमान देखकर द्वेष होता है, इस कारण वह आत्मा राग-द्वेष से लिप्त होता हुआ जैसे उपभोग करने से निर्मल वस्त्र मलिन होता है, उसी तरह धीरे-धीरे कर्म रज से मलिन कर दिया जाता है । इस प्रकार मलिन किया हुआ वह आत्मा कर्म के गौरव (भार) से फिर संसार में उतरता है । इस अवस्था में कर्म युक्त होने के कारण वह आत्मा, तीसरी राशि की अवस्था में अर्थात् सकर्मावस्था में होता है ॥११॥
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छाया - इह संवृतो मुनिर्जातः पश्चाद्भवत्यपापकः । विकटाम्बु यथा भूयो नीरजस्कं सरजस्कं तथा ॥ 1. आसी चू. । 2. कीलावण-प्पदोसेण रजसा अवतारते, चू. । 3. इह संवुडे भवित्ताणं सुद्धे सिद्धीए चिट्ठती । तुणोकालेणऽणतेणं तत्थ से अवरज्झती ||१२|| चू. ।
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