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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशके गाथा १३
परसमयवक्तव्यतायां कृतवादाधिकारः व्याकरण - (इह) अव्यय (संवुडे, जाए, अपावए) मुनि के विशेषण (पच्छा) अव्यय (मुणी) कर्ता (होइ) क्रिया (जहा, भुज्जो, तहा) अव्यय (नीरयं, सरयं) विकटाम्बु के विशेषण (वियडंबु) कर्ता ।
___ अन्वयार्थ - (इह) इस मनुष्य भव में जो जीव, (संवुडे) यम नियम रत (मुणी जाए) मुनि होता है (पच्छा अपावए होइ) वह पीछे पाप रहित हो जाता है (जहा) जैसे (नीरय) निर्मल (वियडंबु) जल (भुज्जो) फिर (सरय) मलिन हो जाता है (तहा) उसी तरह वह निर्मल आत्मा फिर मलिन हो जाता है।
भावार्थ - जो जीव मनुष्य भव को पाकर यम नियम में तत्पर रहता हुआ मुनि होता है, वह पीछे पाप रहित हो जाता है । फिर जैसे निर्मल जल मलिन होता है । उसी तरह वह भी मलिन हो जाता है ।
टीका - इह अस्मिन् मनुष्यभवे प्राप्तः सन् प्रव्रज्यामभ्युपेत्य संवृतात्मा-यम नियमरतो जातः सन् पश्चादपापो भवति-अपगताशेषकर्मकलङ्को भवतीति भावः । ततः स्वशासनं प्रज्वाल्य मुक्त्यवस्थो भवति । पुनरपि स्वशासनपूजादर्शनानिकारोपलब्धेश्च रागद्वेषोदयात् कलुषितान्तरात्मा विकटाम्बुवद्-उदकवन्नीरजस्कं सद्वातोद्धतरेणुनिवहसंपृक्तं सरजस्कं-मलिनं भूयो यथा भवति तथाऽयमप्यात्माऽनन्तेन कालेन संसारोद्वेगाच्छुद्धाचारावस्थो भूत्वा ततो मोक्षावाप्तौ सत्यामकर्मावस्थो भवति । पुनः शासनपूजानिकारदर्शनाद्रागद्वेषोदयात् सकर्मा भवतीति । एवं त्रैराशिकानां राशित्रयावस्थो भवत्यात्मेत्याख्यातम् । उक्तं च
“दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीसनिष्ठम । मुक्तः स्वयं कृतभवश्व परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ? ||१|द्वात्रिशिका।।१२।।
टीकार्थ - जो जीव, मनुष्य भव को प्राप्त करके प्रव्रज्या धारण कर यम, नियम में रत रहता है, वह पाप रहित हो जाता है । वह समस्त कर्मकलङ्क से रहित हो जाता है, यह भाव है । इसके पश्चात् वह पुरुष, अपने शासन को प्रज्वलित करके मुक्तिगामी होता है। फिर वह अपने शासन की पूजा देखकर राग करता है और तिरस्कार देखकर द्वेष करता है। इस प्रकार राग-द्वेष के उदय से वह पुरुष इस प्रकार मलिनात्मा हो जाता है, जैसे निर्मल जल पहले स्वच्छ होकर भी पीछे वायु के द्वारा उड़ाई हुई धूलि के संयोग से मलिन हो जाता है । आशय यह है कि वह जीव अनन्तकाल के पश्चात् संसार से उद्विग्न होकर शुद्धाचार सम्पन्न होता है और शुद्धाचार सम्पन्न होकर मोक्ष को प्राप्त करके कमें रहित हो जाता है परन्तु वह फिर अपने शासन की पूजा और तिरस्कार देखकर रागद्वेष करता है। राग-द्वेष करने के कारण वह फिर कर्म सहित हो जाता है । इस प्रकार त्रैराशिक मत में आत्मा तीन राशि (अवस्थाओं) को प्राप्त करता है । कहा भी है
(दग्धेन्धनः) हे भगवन् । तुम्हारे शासन को न मानने वाले पुरुषों पर मोह का साम्राज्य देखा जाता है। वे मूर्ख, कहते हैं कि मुक्त जीव फिर संसार में आता है परन्तु यह उनके मोह का प्रभाव है। जो काष्ठ जल गया है वह फिर नहीं जलता है, इसी तरह संसार को मंथन करके जो जीव, मुक्त हो गया है, वह फिर संसार में नहीं आता है। तथापि वे अन्य तीर्थी मुक्त होकर फिर स्वयं संसार में आना मानते हैं और दूसरे को मुक्ति दिलाने के लिए शूर बनते हैं ।।१।।१२।।
- अधुनैतदूषयितुमाह -
- अब इस मत को दूषित करने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - एताणुवीति मेधावी, 'बंभचेरे ण ते वसे । पुढो पावाउया सव्वे, अक्खायारो सयं सयं
॥१३॥ छाया - एताननुचिन्त्य मेधावी, ब्रह्मचर्थे न ते वसेयुः । पृथक् प्रावादुकाः सर्वे ाख्यातारः स्वकं स्वकम्।।
1. बंभचेरं न तं वसे । पुढो पावादिया चू. ।