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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोदेशके गाथा ९
परसमयवक्तव्यतायां जगत्कर्तृत्वखण्डनाधिकारः है, वह प्रधान नहीं है । इसलिए प्रधान से महत् आदि की उत्पत्ति मानना असङ्गत है । तथा प्रकृति अचेतन है, वह पुरुष का प्रयोजन सिद्ध करने के लिए कैसे प्रवृत्त हो सकती है । जिससे आत्मा का भोग सिद्ध होकर सृष्टि रचना हो सके ? यदि कहो कि अचेतन होने पर भी प्रकृति का यह स्वभाव है कि यह पुरुष का प्रयोजन सिद्ध करने के लिए प्रवृत्त होती है तब तो प्रकृति से स्वभाव ही बलवान् है, क्योंकि वह प्रकृति को भी नियम में रखता है । ऐसी दशा में तुम स्वभाव को ही जगत् का कारण क्यों नहीं मानते । अदृष्ट प्रकृति आदि की कल्पना का क्या प्रयोजन है ? यदि कहो कि - " आदि शब्द से कोई स्वभाव को भी जगत् का कारण मानता है" तो मानने दो। स्वभाव को जगत् का कारण मानने पर आर्हतों की कोई हानि नहीं है, क्योंकि अपने भाव को यानी अपनी उत्पत्ति को स्वभाव कहते हैं और पदार्थों की उत्पत्ति आर्हतों को इष्ट ही है । तथा नियतिवादीयों ने जो कहा है कि- "यह लोक नियति कृत है" तो इस पक्ष में भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ जैसा है, उसका वैसा होना नियति है । विचार करने पर वह नियति स्वभाव से अतिरिक्त नहीं प्रतीत होती है ।
तथा पहले जो यह कहा है कि- "यह लोक स्वयम्भू द्वारा रचित है ।" यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'स्वयम्भू' शब्द का अर्थ क्या है ? जिस समय वह स्वयम्भू होते हैं, उस समय वह दूसरे किसी कारण की अपेक्षा किये बिना क्या स्वतन्त्र रूप से होते हैं ? इसलिए वह 'स्वयम्भू' कहलाते हैं अथवा वह अनादि हैं, इसलिए स्वयम्भू कहलाते हैं ? यदि वह अपने आप होने के कारण 'स्वयम्भू' कहलाते हैं तो इसी तरह इस लोक को अपने आप उत्पन्न होना क्यों नहीं मान लेते ? उस स्वयम्भू की क्या आवश्यकता है ? यदि वह स्वयम्भू अनादि होने के कारण स्वयम्भू कहलाते हैं तो वह जगत् के कर्ता नहीं हो सकते, क्योंकि जो अनादि होता है वह नित्य होता है, और नित्य पदार्थ एक रूप होता है । इसलिए वह नित्य स्वयम्भू जगत् का कर्ता नहीं हो सकते । वह स्वयम्भू यदि वीतराग हैं तो वह इस विचित्र जगत् के कर्ता नहीं हो सकते और यदि वह सराग तो हम लोगों के समान ही वह सुतरां विश्व के कर्ता नहीं हैं। इसी तरह मूर्त और अमूर्त आदि विकल्पों का भी यहाँ सञ्चार करना चाहिए। तथा यह जो कहा है कि- "उस स्वयम्भू ने यमराज को उत्पन्न किया और वह यमराज लोक को मारता है । " यह भी प्रलाप मात्र है, क्योंकि स्वयम्भू, जगत् का कर्ता नहीं हो सकते यह कहा जा चुका है । वैसे यमराज का भी समझ लेना चाहिए ।
तथा किसी ने जो यह कहा है कि- "यह लोक अण्डा आदि क्रम से उत्पन्न हुआ है, यह भी असङ्गत है, क्योंकि जिस जल में उस स्वयम्भू ने अण्डा उत्पन्न किया वह जल जैसे अण्डा के बिना ही उत्पन्न हुआ था, उसी तरह यह लोक भी अण्डा के बिना ही उत्पन्न हुआ यह मान लेने में कोई बाधा नहीं है । तथा वह ब्रह्मा जब तक अण्डा बनाता है तब तक वह इस लोक को ही क्यों नहीं बना देता है ? अतः युक्ति विरुद्ध अण्डा की कष्ट कल्पना का क्या प्रयोजन है ? यदि कहो कि ऐसा ही हो, अर्थात् अण्डा के बिना ही ब्रह्मा सृष्टि उत्पन्न करता है यही मानो क्योंकि किसी ने कहा है कि - "ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, उरु से वैश्य और पैर से शूद्र हुए" परन्तु यह कथन भी युक्ति विरुद्ध है, क्योंकि मुख आदि के द्वारा किसी की उत्पत्ति नहीं देखी जाती है । यदि ऐसा हो तो ब्राह्मणादि वर्णों का परस्पर भेद न रहेगा, क्योंकि वे सभी एक ही ब्रह्मा से उत्पन्न हैं । तथा ब्राह्मणों का कठ, तैत्तिरीयक और कलाप आदि भेद भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि सभी एक ही मुख से उत्पन्न हैं । तथा ब्राह्मणों का उपनयन विवाह आदि संस्कार भी नहीं हो सकेंगे । यदि हों तो बहिन के साथ विवाह मानना पड़ेगा । अतः इस प्रकार के अनेकों दोष होने के कारण ब्रह्मा के मुख आदि से सृष्टि की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है । अतः यह सिद्ध होता है कि पूर्वोक्त मतवादी लोग इस लोक का यथार्थ स्वरूप न जानते हुए मिथ्या भाषण करते हैं ।
वस्तुत: यह लोक अनादि और अनन्त है। यह लोक ऊपर तथा नीचे चौदह रज्जु प्रमाणवाला है और रङ्गशाला में, कमर पर हाथ रखकर नाचने के लिए खड़े हुए पुरुष के समान आकारवाला है । यह लोक, नीचे मुख किये हुए शराव के समान आकारवाले नीचे के सात लोकों से युक्त है। तथा थाली के समान आकारवाले असंख्यात द्वीप और समुद्र के आधार भूत मध्य लोक से युक्त है । एवं शराव की पेटी के समान यह ऊर्ध्व
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