________________
सूत्रकृतानेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा १७ परसमयवक्तव्यतायामज्ञानवादाधिकारः
अन्वयार्थ - (अत्राणियाणं) अज्ञानवादियों का (वीमंसा) पर्सालोचनात्मक विचार (अण्णाणे) अज्ञान पक्ष में (न विनियच्छइ) युक्त नहीं हो सकता है (अप्पणो य) वे अज्ञानवादी अपने को भी (पर) अज्ञानवाद की (अणुसासिउं) शिक्षा देने के लिए (नालं) समर्थ नहीं है (अन्नाणुसासिउं कुतो) फिर वे दूसरे को शिक्षा देने में समर्थ कैसे हो सकते हैं ?
भावार्थ - "अज्ञान ही श्रेष्ठ हैं", यह पर्सालोचनात्मक विचार अज्ञान पक्ष में सङ्गत नहीं हो सकता है। अज्ञानवादी अपने को भी शिक्षा देने में समर्थ नहीं हैं, फिर वे दूसरे को शिक्षा कैसे दे सकते हैं?
टीका - न ज्ञानमज्ञानं तद्विद्यते येषान्तेऽज्ञानिनः । अज्ञानशब्दस्य संज्ञाशब्दत्वाद्वा मत्वर्थीयः, गौरखरवदरण्यमिति यथा, तेषामज्ञानिनामज्ञानमेव श्रेय इत्येवं वादिनां, योऽयं विमर्शः पर्सालोचनात्मको मीमांसा वा मातुं परिच्छेत्तुमिच्छा सा अज्ञाने अज्ञानविषये न 'णियच्छति' न निश्चयेन यच्छति- नावतरति, न युज्यत इति यावत्, तथाहि- यैवंभूता मीमांसा विमर्शो वा किमेतज्ज्ञानं सत्यमुतासत्यमिति ?, "यथा अज्ञानमेव श्रेयो, यथा यथा च ज्ञानातिशयस्तथा तथा च दोषातिरेक इति" सोऽयमेवंभूतो विमर्शस्तेषां न 'बुध्यते, एवंभूतस्य पालोचनस्य ज्ञानरूपत्वादिति । अपि चतेऽज्ञानवादिन आत्मनोऽपि परं प्रधानमज्ञानवादमिति शासितुमुपदेष्टुं नालं न समर्थास्तेषामज्ञानपक्षसमाश्रयणेनाज्ञत्वादिति, कुतः पुनस्ते स्वयमज्ञाः सन्तोऽन्येषां शिष्यत्वेनोपगतानामज्ञानवादमुपदेष्टुमलं-समर्था भवेयुरिति ? यदप्युक्तम्छिन्नमूलत्वाम्लेच्छानुभाषणवत् सर्वमुपदेशादिकम्" तदप्ययुक्तं यतोऽनुभाषणमपि न ज्ञानमृते कर्तुं शक्यते । तथा यदप्युक्तं "परचेतोवृत्तीनां दुरन्वयत्वादज्ञानमेव श्रेय इति तदप्यसत्, यतो भवतैवाज्ञानमेव श्रेय इत्येवं परोपदेशदानाभ्युद्यतेन परचेतोवृत्तिज्ञानस्याभ्युपगमः कृत इति । तथाऽन्यैरप्यभ्यधायि"आकारैरिङ्गितै गत्या, चेष्टया भाषितेन च । नेत्रवक्तविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः" ||१||१७||
टीकार्थ - जो ज्ञान नहीं है, उसे 'अज्ञान' कहते हैं। वह अज्ञान जिसको है, उसे 'अज्ञानी' कहते हैं । अथवा अज्ञान शब्द संज्ञा शब्द है, इसलिए "गौरखरवदरण्यम्" की तरह इससे मत्वर्थीय प्रत्यय हुआ है। "अज्ञान ही श्रेष्ठ है", यह कहनेवाले वे अज्ञानवादी जो यह पसंलोचनात्मक विचार करते हैं अथवा वे जो पदार्थ को निश्चय करने की इच्छा करते हैं, वह निश्चय रूप से अज्ञान विषय में सङ्गत नहीं हो सकता है, क्योंकि यह जो मीमांसा है अथवा विचार है कि- "यह ज्ञान सत्य है अथवा असत्य है, तथा अज्ञान ही श्रेष्ठ है, एवं ज्यों-ज्यों ज्ञान बढ़ता है त्यों-त्यों दोष बढ़ता है ।" यह विचार भी अज्ञानियों को करना उचित नहीं है क्योंकि इस प्रकार का पालोचनात्मक विचार भी ज्ञान रूप है । तथा वे अज्ञानवादी, उनके मत में प्रधान अज्ञानवाद की शिक्षा अपने को भी देने में समर्थ नहीं हैं, क्योंकि अज्ञान पक्ष का आश्रय लेने के कारण वे अज्ञानी हैं । इस प्रकार जब वे स्वयं अज्ञानी हैं तब उनका शिष्य बनकर जो उनके पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते हैं, उनको वे अज्ञानवाद की शिक्षा किस तरह दे सकते हैं ? तथा उक्त अज्ञानवादियों ने जो यह कहा है कि- "सब उपदेश आदि, म्लेच्छ द्वारा किया हुआ आर्यभाषा का अनुवाद के समान निराधार हैं।" यह भी अयुक्त हैं क्योंकि ज्ञान के बिना दूसरे की भाषा का अनुवाद भी नहीं किया जा सकता है । तथा उक्त अज्ञानवादी ने जो यह कहा है कि- "दूसरे की चित्तवृत्ति नहीं जानी जाती है, इसलिए अज्ञान ही श्रेष्ठ है।" यह भी अयुक्त है क्योंकि "अज्ञान ही श्रेष्ठ है" यह दूसरे को उपदेश देने के लिए प्रवृत्त होकर तुमने स्वयं दूसरे की चित्तवृत्ति का ज्ञान होना स्वीकार कर लिया है । (यदि दूसरे की चित्तवृत्ति नहीं जानी जाती है तो तुम्हारी चित्तवृत्ति को तुम्हारे शिष्य नहीं जान सकते हैं, फिर तुम उन्हें अज्ञानवादियों की शिक्षा क्यों देते हो ?) दूसरे की चित्तवृत्ति जानी जाती है, यह दूसरे मतवादियों ने भी स्वीकार किया है । जैसे कि
(आकारैः) अर्थात् मनुष्य के आकार से, इङ्गित से, गति से, चेष्टा से, भाषण से, तथा नेत्र और मुख के विकार से, उसके अन्दर का मन जान लिया जाता है ||१||१७||
___ - तदेवं ते तपस्विनोऽज्ञानिन आत्मनः परेषां च शासने कर्तव्ये यथा न समर्थास्तथा दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह
- इस प्रकार वे बिचारे अज्ञानवादी अपने को तथा दूसरे को शिक्षा देने में जिस प्रकार समर्थ नहीं है, 1. तेषां मते सम्यक्तया न ज्ञायते न युज्यते, इति भावः ।