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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोदेशके गाथा २९
छाया - पुत्रं पिता समारभ्याहारयेदसंयतः । भुञ्जानश्च मेधावी कर्मणा नोपलिप्यते ॥
व्याकरण - (पुत्तं) कर्म (पिया) कर्ता (समारम्भ) पूर्वकालिक क्रिया (आहारेज्ज) क्रिया (असंजए) कर्ता का विशेषण (भुंजमाणो ) कर्ता का विशेषण (मेहावी) कर्ता का विशेषण (कम्मणा) करण (न) अव्यय (उवलिप्पइ) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (असंजए) संयमवर्जित (पिया) पिता (पुत्तं ) पुत्र को (समारम्भ) मारकर (आहारेज्ज) खावे तो (भुंजमाणो य) खाता हुआ भी वह पिता (कम्मणा) कर्म से (नोवलिप्पइ) उपलिप्त नहीं होता है (मेहावी) इसी तरह साधु भी कर्म से उपलिप्त नहीं होता है । भावार्थ - जैसे विपत्ति के समय कोई गृहस्थ पिता अपने पुत्र को मारकर उसका माँस खाता है तो वह पुत्र का माँस खाकर भी कर्म से उपलिप्त नहीं होता है, इसी तरह राग-द्वेष रहित साधु भी माँस खाता हुआ कर्म से उपलिप्त नहीं होता है ।
टीका - पुत्रमपत्यं पिता जनकः समारभ्य व्यापाद्य आहारार्थं कस्याञ्चित्तथाविधायामापदि तदुद्धरणार्थमरक्तद्विष्टोऽसंयतो गृहस्थस्तत्पिशितं भुञ्जानोऽपि च शब्दस्याऽपिशब्दार्थत्वादिति तथा मेधाव्यपि संयतोऽपीत्यर्थः, तदेवं गृहस्थो भिक्षुर्वा शुद्धाशयः पिशिताश्यपि कर्मणा पापेन नोपलिप्यते नाश्लिष्यत इति । यथा चाऽत्र पितुः पुत्रं व्यापादयतस्तत्रारक्तद्विष्टमनसः कर्मबन्धो न भवति, तथाऽन्यस्याऽप्यरक्तद्विष्टान्तःकरणस्य प्राणिवधे सत्यपि न कर्मबन्धो भवतीति ॥२८॥
परसमयवक्तव्यतायां अज्ञानवादाधिकारः
टीकार्थ - जैसे राग-द्वेष रहित कोई गृहस्थ पिता किसी बड़ी विपत्ति के समय उसके उद्धारार्थ आहार के लिए अपने पुत्र को मारकर उसका माँस खाता हुआ भी कर्मबन्ध को नहीं प्राप्त करता है, क्योंकि पुत्र के ऊपर उसका द्वेष नहीं है । इसी तरह साधु भी माँस खाता हुआ कर्म बन्ध को प्राप्त नहीं होता है । यहाँ 'च' शब्द अपि शब्द के अर्थ में है । इस प्रकार चाहे गृहस्थ हो या साधु हो, जिसका भाव शुद्ध होता है, वह माँस खाता हुआ भी कर्म यानी पाप से लिप्त नहीं होता है । जैसे राग-द्वेष रहित पिता को पुत्र के घात करने पर भी कर्म बन्ध नहीं होता है । इसी तरह जिसका अन्तःकरण राग-द्वेष रहित है, उसके द्वारा प्राणी का घात होने पर भी कर्म बन्ध नहीं होता है ॥२८॥
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मणसा जे पउस्संति, चित्तं तेसिं ण विज्जइ ।
अणवज्जमतहं तेसिं, ण ते संवुडचारिणो
साम्प्रतमेतद् दूषणायाह
अब इस मत को दूषित करने के लिए शास्त्रकार कहते हैं।
।।२९।।
छाया - मनसा ये प्रद्विषन्ति चित्तं तेषां न विद्यते । अनवद्यमतथ्यं तेषां न ते संवृतचारिणः ॥
व्याकरण - (मणसा) करण (जे) कर्ता (पउस्संति) क्रिया (चित्तं) कर्ता (तेसिं) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त (ण) अव्यय (विज्जइ) क्रिया (अणवज्जं ) अस्ति क्रिया का कर्ता (अतहं) अनवद्य का विशेषण (तेसिं) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त पद (ते) सर्वनाम, अन्य तीर्थी का विशेषण (संवुडचारिणो) परतीर्थी का विशेषण |
अन्वयार्थ - (जे) लोग (मणसा) मन से (पउस्संति) किसी प्राणी पर द्वेष करते हैं (तेसिं) उनका (चित्तं) चित्त (ण विज्जइ) निर्मल नहीं है । (सिं अणवज्जमतहं) तथा उनको कर्म का उपचय न होना भी मिथ्या है (ते ण संवुडचारिणो ) तथा वे संवर के साथ विचरने वाले नहीं
हैं ।
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भावार्थ - जो, मन से प्राणियों पर द्वेष करते हैं, उनका चित्त निर्मल नहीं है तथा मन से द्वेष करने पर पाप नहीं होता है, यह उनका कथन भी मिथ्या है, अतः वे संयम के साथ विचरनेवाले नहीं हैं ।
टीका - ये हि कुतश्चिन्निमित्तात् मनसा अन्तःकरणेन प्रादुःष्यन्ति प्रद्वेषमुपयान्ति तेषां वधपरिणतानां शुद्धं चित्तं न विद्यते तदेवं यत्तैरभिहितं - यथा केवलमनः प्रद्वेषेऽपि अनवद्यं कर्मोपचयाभाव इति, तत् तेषाम् अतथ्यमसदर्था