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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा ३२ परसमयवक्तव्यतायांक्रियावाद्यधिकारः
- साम्प्रतं दार्टान्तिकयोजनार्थमाह -
- इस दृष्टान्त को दार्टान्त के साथ मिलाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया । संसारपारकंखी ते, संसारं अणुपरियटृति
॥३२॥ (ग्रन्थाग्रं० ५९) त्ति बेमि इति प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः । छाया - एवं तु श्रमणा एके मिथ्यादृष्टयोऽनाऱ्याः । संसारपारकादिक्षणस्ते संसारमनुपर्यटन्ति |
इति ब्रवीमि व्याकरण - (एवं तु) अव्यय (एगे, मिच्छदिट्ठी, अणारिया) श्रमण के विशेषण (समणा) कर्ता (संसारपारकंखी) श्रमण का विशेषण (संसार) कर्म (अणुपरियटृति) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (एवं तु) इस प्रकार (एगे) कोई (मिच्छदिट्ठी) मिथ्यादृष्टि (अणारिया) अनार्य (समणा) श्रमण (संसारपारकंखी) संसार से पार जाना चाहते हैं, परन्तु (ते) वे (संसार) संसार में ही (अणुपरियटृति) पर्यटन करते हैं।
भावार्थ - इस प्रकार कोई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण संसार से पार जाना चाहते हैं, परन्तु वे संसार में ही भ्रमण करते हैं।
टीका - एवमिति यथाऽन्धः सच्छिद्रां नावं समारूढः पारगमनाय नालं तथा श्रमणा एके शाक्यादयो मिथ्या विपरीता दृष्टिर्येषां ते मिथ्यादृष्टयस्तथा पिशिताशनानुमतेरनार्याः स्वदर्शनानुरागेण संसारपारकाक्षिणो मोक्षाभिलाषुकाः अपि सन्तस्ते चतुर्विधकर्मचयानभ्युपगमेनाऽनिपुणत्वाच्छासनस्य संसारमेव चतुर्गतिसंसरणरूपमनुपर्यटन्ति। भूयो भूयस्तत्रैव जन्मजरामरणदौर्गत्यादिक्लेशमनुभवन्तोऽनन्तमपि कालमासते, न विवक्षितमोक्षसुखमाप्नुवन्ति, इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति ॥३२॥
इति सूत्रकृताङ्गे समयाख्याध्ययनस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ।
टीकार्थ - जैसे जन्मान्ध मनुष्य, छिद्रवाली नाव पर चढ़कर नदी को पार करने में समर्थ नहीं होता । उसी तरह विपरीत दृष्टिवाले तथा माँसाहार का समर्थन करने के कारण अनार्य शाक्य भिक्षु आदि अपने दर्शन के अनुराग से संसार से पार जाना और मोक्ष सुख प्राप्त करना चाहते हैं, परन्तु उनका शास्त्र, "चतुर्विध कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होता है।" यह शिक्षा देने के कारण संसार से पार करने में समर्थ नहीं है, इसलिए वे चतर में ही भ्रमण करते हैं। वे बार-बार संसार में ही जन्म, जरा, मरण और दुर्गति आदि क्लेश को भोगते हुए अनन्त काल तक संसार में ही निवास करते हैं परन्तु वे मोक्ष को प्राप्त नहीं करते हैं । यह मैं कहता हूँ, यह पूर्ववत् जानना चाहिए।
श्री सूत्रकृताङ्गसूत्र के प्रथम अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त हुआ ।
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