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परसमयवक्तव्यतायांजगत्कर्तृत्वाधिकारः
सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोदेशके गाथा ६
एव जगदादावासीत्तेन च प्रजापतयः सृष्टाः तैश्च क्रमेणैतत्सकलं जगदिति ॥५॥
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टीकार्थ - यहाँ इदम् शब्द से आगे कहा जानेवाला मत समझना चाहिए । 'तु' शब्द पूर्वोक्त मतों से इस मत की विशेषता बताने के लिए है । अर्थात् पूर्वोक्त मतों से भिन्न यह आगे कहा जानेवाला मत भी अज्ञान अर्थात् मोह का ही प्रभाव है । इस लोक में सबका नहीं किन्तु किन्हीं का यह कथन है । वह कथन क्या है? सो सूत्रकार बतलाते हैं- जैसे किसान बीज बोकर धान्य उत्पन्न करता है, इसी तरह किसी देवता ने इस लोक को उत्पन्न किया है । अथवा कोई देवता इस लोक की रक्षा करता है । अथवा यह लोक किसी देवता का पुत्र है इत्यादि । यह सब अज्ञान का प्रभाव समझना चाहिए। तथा दूसरे कहते है कि - यह लोक ब्रह्मा के द्वारा किया गया है । उनकी मान्यता यह है कि- "ब्रह्मा जगत् के पितामह हैं । वह, जगत् के आदि में एक ही थे । उन्होंने प्रजापतियों को बनाया और प्रजापतियों ने क्रमशः इस सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न किया ||५||
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ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे । जीवाजीवसमाउत्ते, सुहदुक्खसमन्निए || ६ || • ईश्वरेण कृतो लोकः प्रधानादिना तथाऽपरे । जीवाजीवसमायुक्तः सुखदुःखसमन्वितः ॥ व्याकरण - ( लोए) आक्षिप्त अस्ति क्रिया का कर्ता (ईसरेण) उत्पत्ति क्रिया का कर्ता (कडे) लोक का विशेषण ( तहा) अव्यय (आवरे) कर्ता (पहाणाइ) कर्ता ( जीवाजीव समाउत्ते, सुहदुक्खसमन्निए) लोक के विशेषण ।
छाया -
अन्वयार्थ - (जीवाजीवसमाउत्ते) जीव और अजीव से युक्त ( सुहदुक्खसमन्निए) सुख और दुःख के सहित (लोए) यह लोक (ईसरेण कडे ) ईश्वर कृत है, ऐसा कोई कहते हैं ( तहावरे ) तथा दूसरे कहते हैं कि यह लोक ( पहाणाइ) प्रधानादि कृत है ।
भावार्थ - ईश्वरकारणवादी, कहते हैं कि जीव, अजीव, सुख तथा दुःख से युक्त यह लोक ईश्वर कृत है और साङ्ख्यवादी कहते हैं कि यह लोक प्रधानादि कृत है ।
टीका तथेश्वरेण कृतोऽयं लोक एवमेके ईश्वरकारणिका अभिदधति, प्रमाणयन्ति च ते सर्वमिदं विमत्यधिकरण-भावापन्नं तनुभुवनकरणादिकं धर्मित्वेनोपादीयते, बुद्धिमत्कारणपूर्वकमितिसाध्यो धर्मः, संस्थानविशेषत्वादिति हेतुः । यथा घटादिरिति दृष्टान्तोऽयं यद्यत्संस्थानविशेषवत्तत्तद् बुद्धिमत्कारणपूर्वकं दृष्टं यथा देवकुलकूपादीनि । संस्थानविशेषवच्च मकराकरनदीधराधरधराशरीरकरणादिकं विवादगोचरापन्नमिति, तस्माद् बुद्धिमत्कारणपूर्वकं यश्च समस्तस्यास्य जगतः कर्ता स सामान्यपुरुषो न भवतीत्यसावीश्वर इति । तथा सर्वमिदं तनुभुवनकरणादिकं धर्मित्वेनोपादीयते, बुद्धिमत्कारणपूर्वकमिति साध्यो धर्मः कार्य्यत्वाद् घटादिवत् । तथा स्थित्वा प्रवृत्तेर्वा, र्वास्यादिवदिति । तथाऽपरे प्रतिपन्ना यथा- प्रधानादिकृतो लोकः, सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, सा च पुरुषार्थं प्रति प्रवर्तते । आदिग्रहणाच्च ‘“प्रकृतेर्महान् ततोऽहङ्कारस्तस्माच्च गणः षोडशकस्तस्मादपि षोडशकात्पञ्चतन्मात्रा पञ्चतन्मात्राभ्यः पञ्चभूतानी" त्यादिकया प्रक्रियया सृष्टिर्भवतीति । यदि वा आदिग्रहणात्स्वभावादिकं गृह्यते, ततश्चायमर्थः स्वभावेन कृतो लोकः कण्टकादितैक्ष्ण्यवत् । तथाऽन्ये नियतिकृतो लोको मयूराङ्गरुहवदित्यादिभिः कारणैः कृतोऽयं लोको 'जीवाजीवसमायुक्तो जीवैरुपयोगलक्षणैस्तथाऽजीवै: - धर्माधर्माकाशपुद्गलादिकैः समन्वितः समुद्रधराधरादिक इति । पुनरपि लोकं विशेषयितुमाह सुखमानन्दरूपं दुःखमसातोदयरूपमिति ताभ्यां समन्वितो युक्त इति ॥६॥ किञ्च -
टीकार्थ - ईश्वर को जगत् का कर्ता माननेवाले दार्शनिक कहते हैं कि यह लोक ईश्वर का किया हुआ है। वे इस विषय को प्रमाणित करने के लिए कहते हैं कि शरीर, भुवन और इन्द्रिय आदि के विषय में भिन्न-भिन्न मत वादियों का भिन्न-भिन्न मत है । इसलिए ये सब विवाद के स्थान हैं। ये विवाद के स्थान शरीर, भुवन और इन्द्रिय आदि (पक्ष) किसी बुद्धिमान् कर्ता द्वारा किये हुए हैं । ( साध्य) क्योंकि इनकी अवयव रचना, विशेष प्रकार की है । (हेतु) जिस-जिस वस्तु की अवयव रचना, विशेष प्रकार की होती है । वह वह वस्तु किसी बुद्धिमान् कर्ता द्वारा ही की हुई होती है । जैसे घट आदि तथा देवकुल और कूप आदि विशेष अवयव रचनावाले होने के कारण किसी बुद्धिमान् कर्ता द्वारा ही किये हुए हैं, इसी तरह विवाद के स्थान समुद्र, नदी, पर्वत, पृथिवी और शरीर आदि भी विशेष अवयव रचनावाले होने के कारण किसी बुद्धिमान् कर्ता द्वारा ही किये हुए हैं। जो इस
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