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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशके गाथा ४
परसमयवक्तव्यतायामाधाकर्मोपभोगफलाधिकारः
व्याकरण - (तं) कर्म (एव) अव्यय ( अवियाणंता) आधाकर्म आहार खानेवाले का विशेषण (विसमंसि) अधिकरण (अकोविया) आधाकर्म आहार खानेवाले का विशेषण (मच्छा) उपमान कर्ता (वेसालिया) मत्स्य का विशेषण ( उदगस्स) सम्बन्ध षष्ठयन्त (अभियागमे) भाव लक्षण सप्तम्यन्त पद ( पभावेण ) करण (सुक्खं सिग्घं) कर्म विशेषेण ( ढंकेहि कंकेहि) हेतु तृतीयान्त (आमिसत्थेहिं ) ढंक कङ्क का विशेषण (ते दुही) वैसालिकमत्स्य के विशेषण ।
अन्वयार्थ - (तमेव) उस आधाकर्म आदि आहार के दोषों को (अवियाणंता) नहीं जानते हुए तथा (विसमंसि अकोविया) संसार अथवा अष्टविध कर्म के ज्ञान में अनिपुण वे अन्यतीर्थी (उदगस्सऽभियागमे) जल की बाढ़ आने पर (वेसालिया मच्छा चेव) वैशालिक मत्स्य की तरह दुःखी होते हैं (उदगस्स पभावेण ) जल के प्रभाव से ( सुक्खं सिग्घं) सूखे हुए तथा गीले स्थान को (तर्मिति उ ) प्राप्त कर के जैसे वैशालिक मत्स्य (आमिसत्थेहिं) मांसार्थी ( ढंकेहि कंकेहि) ढंक और कङ्क के द्वारा (दुही) दुःखी होते हैं । ( उसी तरह आधाकर्म आहार सेवन करनेवाले दुःखी होते हैं ।)
भावार्थ आधा कर्म आहार के दोषों को न जाननेवाले एवं चतुर्गतिक संसार तथा अष्टविध कर्म के ज्ञान में अकुशल आधाकर्म आहार खानेवाले पुरुष इस प्रकार दुःखी होते हैं, जैसे जल की बाढ़ आने पर जल के प्रभाव से सूखे और गीले स्थान पर गयी हुई विशाल जातिवाली मछली माँसाहारी ढङ्क और कंक आदि के द्वारा दुःखी की जाती है ।
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टीका - तमेवाधाकर्मोपभोगदोषमजानानाः विषमः- अष्टप्रकारकर्मबन्धो भवकोटिभिरपि दुर्मोक्षः चतुर्गतिसंसारो वा तस्मिन्नकोविदाः, कथमेष कर्मबन्धो भवति ? कथं वा न भवति ? केनोपायेन संसारार्णवस्तीर्य्यत इत्यत्राकुशलाः, तस्मिन्नेव संसारोदरे कर्मपाशावपाशिताः दुःखिनो भवन्तीति । अत्र दृष्टान्तमाह - यथा मत्स्याः पृथुरोमाणो विशाल:समुद्रस्तत्र भवाः वैशालिकाः विशालाख्यविशिष्टजात्युद्भवा वा वैशालिकाः विशाला एव [वा] वैशालिका:बृहच्छरीरास्ते एवं भूता: महामत्स्या उदकस्याभ्यागमे समुद्रवेला ( यामागता) यां सत्यां प्रबलमरुद्वेगोदूतोत्तुङ्गकल्लोलमालाऽपनुन्नाः सन्त उदकस्य प्रभावेन नदीमुखमागताः पुनर्वेलाऽपगमे तस्मिन्नुदके शुष्के वेगेनैवापगते सति बृहत्त्वाच्छरीरस्य तस्मिन्नेव धुनीमुखे विलग्ना अवसीदन्त, आमिषगृध्नुभिर्दकैः कङ्केश्च पक्षिविशेषैरन्यैश्च मांसवसार्थिभि र्मत्स्यबन्धादिभिर्जीवन्त एव विलुप्यमानाः महान्तं दुःखसमुद्घातमनुभवन्तोऽशरणाः घातं विनाशं यान्ति प्राप्नुवन्ति । तुरवधारणे, त्राणाभावाद्विनाशमेव यान्तीति श्लोकद्वयार्थः ||२||३||
टीकार्थ आधाकर्म आहार सेवन के उस दोष को न जाननेवाले, तथा कोटि भव के द्वारा भी जिनसे मुक्ति पाना कठिन है, ऐसे आठ प्रकार के कर्म बन्धनों को जानने में अनिपुण अथवा चतुर्गतिक संसार के ज्ञान में अप्रवीण, एवं यह कर्मबन्ध कैसे होता है ? और कैसे नहीं होता ? तथा इस संसार सागर को कैसे पार किया जा सकता है ? इस विषय के ज्ञान में अकुशल वे पुरुष कर्म पाश में बँधे हुए इसी संसार सागर में दुःख पाते रहते हैं। इस विषय में शास्त्रकार दृष्टान्त देते हैं- जैसे बड़ी रोमवाली समुद्र में उत्पन्न अथवा विशाल नामक विशिष्ट जाति में उत्पन्न मछली अथवा बृहत् शरीरवाली मच्छली समुद्र के तरङ्ग आने पर वेगवान् पवन के द्वारा टकराई हुई ऊँची तरङ्गो की माला (समूह) से ताड़ित होकर नदी के तट पर चली जाती है और उस तरङ्ग के हट जाने पर वह जल, जब शीघ्र ही सूख जाता है, तब वह मच्छली बृहत् शरीर होने के कारण उस नदी के तट पर ही पड़ी हुई, माँस लोभी ढङ्क, कङ्क एवं दूसरे चर्बी और माँस लोभी मनुष्यों के द्वारा जीवित ही काटी जाती है और वह रक्षक रहित होकर दुःख पाती हुई मृत्यु को प्राप्त होती है । यहाँ 'तु' शब्द एवकारार्थक है इसलिए रक्षक न होने से वह नाश को ही प्राप्त होती है, यह दो गाथाओं का अर्थ है ||२||३||
एवं दृष्टान्तमुपदर्श्य दान्तिके योजयितुमाह -
इस प्रकार दृष्टान्त बताकर अब दान्त में योजना करने के लिए शास्त्रकार कहते हैं
एवं तु समणा एगे वट्टमाणसुहेसिणो ।
मच्छा वेसालिया चेव, घातमेस्संति णंतसो
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छाया - एवं तु श्रमणा एके वर्तमानसुखैषिणः । मत्स्याः वैशालिकाश्चैव घातमेष्यन्त्यनन्तशः ॥
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