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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशके गाथा ७-८
परसमयवक्तव्यतायांजगत्कर्तृत्वाधिकारः की तीक्ष्णता स्वभाव कृत है । उसी तरह यह समस्त जगत् स्वभाव कृत है, किसी कर्ता द्वारा किया हुआ नहीं है। तथा दूसरे लोग कहते हैं कि जैसे मयूर के रोम नियति वश चित्रित होते इसी तरह यह समस्त विश्व नियति से उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार पूर्वोक्त ईश्वरादि कारणों से उत्पन्न यह लोक जीव और अजीव से भरा हुआ है, अर्थात् समुद्र और पर्वतादि स्वरूप यह समस्त लोक उपयोग स्वरूप जीव और धर्म, अधर्म, आकाश तथा पुद्गल आदि स्वरूप अजीवों से परिपूर्ण है । फिर भी शास्त्रकार लोक का विशेषण बताने के लिए कहते हैं कि- आनन्दरूप सुख और असाता का उदयरूप दुःख इन दोनों से यह समस्त लोक परिपूर्ण है || ६ ||
सयंभुणा कडे लोए इति वृत्तं महेसिणा ।
मारेण संधुया माया, तेण लोए असासए
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छाया - स्वयम्भुवा कृतो लोक इत्युक्तं महर्षिणा । मारेण संस्तुता माया तेन लोकोऽशाश्वतः || व्याकरण - (सयंभुणा) कर्तृ तृतीयान्त (कडे ) प्रथमान्त लोक का विशेषण (लोए) करण क्रिया का कर्म और अध्याहृत अस्ति क्रिया का कर्ता (इति) अव्यय (वुत्तं) क्रिया (महेसिणा ) वृत्तं का कर्ता ( मारेण ) कर्तृ तृतीयान्त (संधुया) माया का विशेषण (माया) उत्पत्ति क्रिया का कर्म ( तेण ) हेतु तृतीयान्त पद (लोए) अध्याहृत अस्ति क्रिया का कर्ता (असासए) लोक का विशेषण ।
अन्वयार्थ – (सयंभुणा) स्वयम्भु ने (लोए) लोक को (कडे) किया है (इति) यह (महेसिणा ) हमारे महर्षि ने ( वुत्तं ) कहा है (मारेण ) यमराज ने (माया) माया (संधुया) रची है (तेण ) इस कारण ( लोए) लोक ( असासए) अनित्य है ।
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भावर्थ – कोई अन्यतीर्थी कहते हैं कि विष्णु ने इस लोक को रचा है, यह हमारे महर्षि ने कहा है । यमराज ने माया बनायी है । इसलिए यह लोक अनित्य है ।
टीका - 'सयंभुणा' इत्यादि, स्वयं भवतीति स्वयम्भूः विष्णुरन्यो वा । स चैक एवादावभूत्, तत्रैकाकी रमते, द्वितीयमिष्टवान्, तच्चिन्तानन्तरमेव द्वितीया शक्तिः समुत्पन्ना तदनन्तरमेव जगत्सृष्टिरभूदिति एवं महर्षिणा उक्तम् अभिहितम् । एवं वादिनो लोकस्य कर्तारमभ्युपगतवन्तः । अपि च तेन स्वयम्भुवा लोकं निष्पाद्यातिभारभयाद्यमाख्यो मारयतीति मारो व्यधायि, तेन मारेण संस्तुता कृता प्रसाधिता माया, तथा च मायया लोकाः म्रियन्ते । न च परमार्थतो जीवस्योपयोगलक्षणस्य व्यापत्तिरस्ति, अतो मायैषा यथाऽयं मृतः । तथाचाऽयं लोकोऽशाश्वतः अनित्यो विनाशी गम्यते ||७||
टीकार्थ जो अपने आप होता है, उसे 'स्वयम्भू' कहते हैं । वह विष्णु हैं अथवा वह दूसरा कोई है। वे पहले एक ही थे और एक ही रमण करते थे । उन्होंने दूसरे की इच्छा की । उनकी चिन्ता के बाद ही दूसरी शक्ति उत्पन्न हुई और वह शक्ति होने के बाद ही यह जगत् की सृष्टि उत्पन्न हुई ऐसा हमारे महर्षि ने कहा है । इस प्रकार लोक की उत्पत्ति माननेवाले वादी, लोक का कर्ता स्वीकार करते हैं । फिर वे कहते हैं कि उस स्वयम्भू ने लोक को उत्पन्न कर अत्यन्त भार के भय से जगत् को मारनेवाला मार अर्थात् यमराज को बनाया उस यमराज ने माया बनायी, उस माया से लोग मरते हैं । वस्तुतः उपयोग रूप जीव का विनाश नहीं होता है इसलिए “यह मर गया'' यह बात माया ही है, परमार्थतः सत्य नहीं है । इस प्रकार यह लोक अशाश्वत- अनित्य अर्थात् विनाशी है, यह प्रतीत होता है ||७|
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अपि च और भी
माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे ।
असो तत्तमकासी य, अयाणंता मुसं वदे
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