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सूत्रकृतानेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशके गाथा ५ परसमयवक्तव्यतायांजगत्कर्तृत्वाधिकारः
व्याकरण - (एवं, तु) अव्यय (वट्टमाणसुहेसिणो) (एगे) श्रमण के विशेषण (वेसालिया) मत्स्य का विशेषण (मच्छा) उपमान कर्ता (समणा) कर्ता (च, इव) अव्यय (णंतसो) अव्यय (घात) कर्म (एस्संति) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (एवं तु) इस प्रकार (वट्टमाणसुहेसिणो) वर्तमान सुख की इच्छा करनेवाले (एगे समणा) कोई श्रमण (वेसालिया मच्छा चेव) वैशालिक मत्स्य के समान (णंतसो) अनन्तबार (घातमेस्संति) घात को प्राप्त करेंगे ।
भावार्थ - इसी तरह वर्तमान सुख की इच्छा करनेवाले कोई श्रमण वैशालिक मत्स्य के समान अनन्तबार घात को प्राप्त होंगे।
टीका - यथैतेऽनन्तरोक्ताः मत्स्यास्तथा श्रमणाः श्राम्यन्तीति श्रमणा एके शाक्यपाशुपतादयः स्वयूथ्या वा किम्भूतास्ते इति दर्शयति-वर्तमानमेव सुखमाधाकर्मोपभोगजनितमेषितुं शीलं येषां ते वर्तमानसुखैषिणः समुद्रवायसवत् तत्कालावाप्तसुखलवाऽऽसक्तचेतसोऽनालोचिताधाकर्मोपभोगजनितातिकटुकदुःखौघानुभवाः, वैशालिकमत्स्या इव घातं विनाशम् एष्यन्ति अनुभविष्यन्ति अनन्तशोऽरहट्टघटीन्यायेन भूयो भूयः संसारोदन्वति निमज्जनोन्मज्जनं कुर्वाणाः न ते संसाराम्भोधेः पारगामिनो भविष्यन्तीत्यर्थः ॥४॥
टीकार्थ - जैसे पूर्वोक्त वैशालिक मत्स्य घात को प्राप्त होता है, इसी तरह शाक्य पाशुपत आदि अथवा कोई स्वयूथिक श्रमण घात को प्राप्त करते हैं । जो तपस्या करता है अथवा परिश्रम करता है, उसे 'श्रमण' कहते हैं। ये शाक्य पाशुपत आदि तथा स्वयूथिक कैसे हैं ? यह सूत्रकार दिखलाते हैं। वर्तमान काल में ही जो सुख दे, ऐसे आधाकर्म आहार के सेवन से उत्पन्न सुख का वे अन्वेषण करते हैं। जैसे समुद्र का काक तात्कालिक सुख में आसक्त रहता है। इसी तरह शाक्य और पाशुपत आदि भी तात्कालिक अल्प सुख में आसक्त रहते हैं। वे बिना विचारे आधाकर्मी आहार का उपभोग करके उसके फलस्वरूप अति कटुक दुःख समूह को भोगते हैं। वे पूर्वोक्त वैशालिक मत्स्य के समान घात को प्राप्त होंगे। जैसे अरहट यन्त्र बार-बार कूप में डूबता और तैरता रहता है, उसी तरह वे भी संसार सागर में बार-बार डुबते और उतराते रहेंगे। वे कभी भी संसार सागर को पार नहीं कर सकेंगे । यह सूत्रार्थ है ॥४॥
- साम्प्रतमपराज्ञाभिमतोपप्रदर्शनायाह -
- अब सूत्रकार दूसरे अज्ञानियों का मत प्रदर्शित करने के लिए कहते हैं इणमन्नं तु अन्नाणं, इहमेगेसि आहियं । देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्तेति आवरे ।।५।।
छाया - इदमव्यत्त्वज्ञानमिठेकेषामाख्यातम् । देवोप्तोऽयं लोकः ब्रह्मोप्त इत्यपरे ॥
व्याकरण - (इणं) सर्वनाम, अज्ञान का विशेषण (अन्न) अज्ञान का विशेषण (त) अव्यय (अन्नाणं) कर्ता (इह) अधिकरण शक्तिप्रधान अव्यय (एगेसि) कर्तृषष्ठ्यन्त (आहियं) अज्ञान का विशेषण (अय) लोक का विशेषण सर्वनाम (देवउत्ते) लोक का विशेषण (लोए) आक्षिप्त अस्ति क्रिया का कर्ता (बंभउत्ते) लोक का विशेषण (इति) अव्यय (आवरे) अक्षिप्त कथन क्रिया का कर्ता ।
___अन्वयार्थ - (इणं) यह (अन्नं तु) दूसरा (अन्नाणं) अज्ञान है (इह) इस लोक में (एगेसि) किन्हींने (आहियं) कहा है कि (अयं) यह (लोए) लोक (देवउत्ते) किसी देव के द्वारा उत्पन्न किया गया है (आवरे) और दूसरे कहते हैं कि- (बंभउत्तेति) यह लोक ब्रह्मा का किया हुआ
भावार्थ - पूर्वोक्त अज्ञान के सिवाय दूसरा एक अज्ञान यह भी है- कोई कहते हैं कि- "यह लोक किसी देवता द्वारा बनाया गया है" और दूसरे कहते हैं कि- "ब्रह्मा ने यह लोक बनाया है।"
टीका - इदमिति वक्ष्यमाणं, 'तु' शब्दः पूर्वेभ्यो विशेषणार्थः । अज्ञानमिति मोहविजृम्भणम्-इह अस्मिन् लोके एकेषां न सर्वेषाम् आख्यातम् अभिप्रायः, किं पुनस्तदाख्यातमिति ? तदाह- देवेनोप्तो देवोप्तः, कर्षकेणेव बीजवपनं कृत्वा निष्पादितोऽयं लोक इत्यर्थः । देवैर्वा गुप्तो-रक्षितो देवगुप्तो देवपुत्रो वेत्येवमादिकमज्ञानमिति । तथा ब्रह्मणा उप्तो ब्रह्मोप्तोऽयं लोक इत्यपरे एवं व्यवस्थिताः । तथा हि तेषामयमभ्युपगम:- ब्रह्मा जगत्पितामहः, स चैक
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