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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोदेशके गाथा २ - ३
परसमयवक्तव्यतायामाधाकर्मोपभोगफलाधिकारः
घणियबंधणबद्धाओ करेइ चियाओ करेइ उवचियाओ करेइ हस्सठिइयाओ दीहठिइयाओ करेइ ।"1 इत्यादि, ततश्चैवं शाक्यादयः परतीर्थिकाः स्वयूथ्या वा आधाकर्म भुञ्जानाः द्विपक्षमेवाऽऽसेवन्त इति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ टीकार्थ इस सूत्र का अनन्तर सूत्र के साथ सम्बन्ध है- अनन्तर उद्देशक के अन्तिम सूत्र में कहा है कि- " एवं तु श्रमणा एके" इत्यादि । इसका सम्बन्ध यहाँ भी होता है, इसलिए इसका अर्थ यह हुआ कि कोई श्रमण जो थोड़ा भी अपवित्र पूतिकृत आहार खाते हैं । वे संसार भ्रमण करते हैं । तथा परम्पर सूत्र में कहा है कि- "मनुष्य को बोध प्राप्त करना चाहिए इत्यादि" अतः जो आहार थोड़ा भी आधाकर्मी आदि युक्त है, उसका बोध प्राप्त करना चाहिए । यह सम्बन्ध यहाँ मिलाना चाहिए । इसी तरह दूसरे सूत्रों के साथ भी इस सूत्र का सम्बन्ध स्वयं जान लेना चाहिए । अब इस सूत्र का अर्थ बतलाया जाता है- जो आधाकर्म आदि आहार थोड़ा भी दोषवाला है तो जो बहुत है, उसका तो कहना ही क्या ? जो आहार थोड़ा भी आधाकर्म आहार के एक कण से भी युक्त है, तथा श्रद्धालु गृहस्थ के द्वारा आनेवाले मुनियों के निमित्त बनाया गया है, स्वयं किया हुआ भी नहीं है, ऐसे आहार को भी जो हजार घर का अन्तर देकर भी खाता है, वह पुरुष गृहस्थ और साधु दोनों के पक्षों को सेवन करता है । आशय यह है कि जो आहार आगन्तुक यतियों के लिए श्रद्धालु गृहस्थ ने बनाया है, हजार घर अन्तर देकर भी उस आहार के एक कण से युक्त आहार भी जो खाता है, वह साधु और गृहस्थ दोनों पक्षों को सेवन करता है, ऐसी दशा में स्वयं सम्पूर्ण आहार तैय्यार कर के जो उसे खाते हैं । ऐसे शाक्यभिक्षु आदि की तो बात ही क्या है ? वे तो सुतरां साधु और गृहस्थ इन दोनों पक्षों का सेवन करते हैं । अथवा ईर्य्यापथ और साम्परायिक को द्विपक्ष कहते हैं । अथवा पूर्वोक्त पूतिकृत आहार को खानेवाला पुरुष, पहले बाँधी हुई कर्म प्रकृति को निकाचित आदि अवस्थाओं में पहुँचाता है और फिर नवीन कर्म प्रकृति बाँधता है । आगम में लिखा है कि
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“आहाकम्मं” इत्यादि अर्थात् "हे भगवन् ! जो श्रमण आधाकर्म आहार का सेवन करता है, वह कितनी कर्म प्रकृतियों को बाँधता है ? हे गौतम! वह श्रमण आठ कर्म प्रकृतियों को बाँधता है । वह ढीले बन्धन में बाँधे हुए कर्मों को दृढ़ बन्धन में बाँधता है तथा वह कर्मों का चय और उपचय करता है । एवं हस्वस्थितिवाली कर्म प्रकृति को दीर्घस्थितिवाली बनाता है ।"
(इस शास्त्रोक्त अर्थ के अनुसार) आधाकर्मी आहार का सेवन करनेवाले शाक्य भिक्षु आदि परतीर्थी तथा स्वयूथिक लोग, साधु तथा गृहस्थ इन दोनों पक्षों का सेवन करते हैं, यह सूत्रार्थ है ॥१॥
- इदानीमेतेषां सुखैषिणामाधाकर्मभोजिनां कटुकविपाकाविर्भावनाय श्लोकद्वयेन दृष्टान्तमाह
सुख का अन्वेषण करनेवाले इन आधाकर्म आहार सेवन करनेवाले पुरुषों को जो कटु फल प्राप्त होता है । उसे प्रकट करने के लिए शास्त्रकार दो श्लोकों के द्वारा दृष्टान्त बताते हैं तमेव अवियाणंता, विसमंसि अकोविया । मच्छा वेसालिया चेव उदगस्सऽभियागमे उदगस्स पभावेण, 2 सुक्खंसिग्घं तमिंति उ । ढंकेहि य कंकेहि य, आमिसत्थेहिं ते दुही
छाया
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तमेवाविजानन्तो विषमे ऽकोविदाः । मत्स्याः वैशालिकाश्चैवोदकस्याभ्यागमे ॥ उदकस्य प्रभावेण शुष्कं घन्तमेत्यतु । ढङ्केश्च कड़ेश्चामिषार्थिभिस्ते दुःखिनः ॥
॥२॥
॥३॥
1. आधाकर्म भुञ्जानः श्रमणः कति कर्मप्रकृतीर्बध्नाति ? गौतम ! अष्ट कर्मप्रकृतीर्बघ्नाति, शिथिलबन्धनबद्धा गाढबन्धनबद्धाः करोति, चिताः करोति, उपचिताः करोति ह्रस्वकालस्थितिका दीर्घकालस्थितिकाः करोति । 2. सुक्कंसि घंतमेति तु ।