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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा ३०-३१ परसमयवक्तव्यतायांक्रियावाद्यधिकारः सरणंति मन्नमाणा सेवंती पावगंजणा
॥३०॥ छाया - इत्येताभिश्च दृष्टिभिः सातागोरवनिश्रिताः । शरणमिति मन्यमानाः सेवन्ते पापकं जनाः ॥
व्याकरण - (इच्चेयाहि) दृष्टि का विशेषण (य) अव्यय (दिट्ठीहिं) करण (सेवंती) क्रिया (सातागारवणिस्सिया) जन का विशेषण (सरणं) कर्म (मन्नमाणा) जन का विशेषण (सेवंती) क्रिया (पावर्ग) कर्म (जणा) कर्ता ।
अन्वयार्थ - (इच्चेयाहि) पूर्वोक्त इन (दिट्ठीहिं) दर्शनों के कारण (सातागारवणिस्सिया) सुख भोग तथा मन बड़ाई में आसक्त अन्यदर्शनी जन (सरणंति मन्नमाणा) अपने दर्शन को अपना शरण मानते हुए (पावर्ग) पाप का (सेवंती) सेवन करते हैं।
भावार्थ - पूर्वोक्त अन्यदर्शनी पूर्वोक्त इन दर्शनों के कारण सुखभोग तथा मान बड़ाई में आसक्त रहते हैं। वे अपने दर्शन को अपना रक्षक समझते हुए पाप कर्म का सेवन करते हैं।
टीका - इत्येताभिः पूर्वोक्ताभिश्चतुर्विधं कर्म नोपचयं यातीति दृष्टिभिः अभ्युपगमैस्ते वादिनः सातागौरवनिश्रिताः सुखशीलतायामासक्ताः यत्किञ्चनकारिणो यथालब्धभोजिनश्च संसारोद्धरणसमर्थं शरणम् इदमस्मदीयं दर्शनमिति एवं मन्यमाना विपरीतानुष्ठानतया सेवन्ते कुर्वते पापम् अवद्यम् एवं वतिनोऽपि सन्तो जना इव जनाः प्राकृतपुरुषसदृशा इत्यर्थः ॥३०॥
टीकार्थ - चतुर्विध कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होता है, इस पूर्वोक्त मन्तव्य के कारण सुखभोग तथा मान बड़ाई में आसक्त वे अन्यदर्शनी सब कुछ करते हैं, और जैसा मिले वैसा ही भोजन खाते हैं । वे अपने दर्शन को संसार से उद्धार करनेवाला मानते हैं, और ऐसा मानते हुए विपरीत अनुष्ठान के द्वारा पाप कर्म का सेवन करते हैं । इस प्रकार व्रतधारी होते हुए भी वे, प्राकृत (साधारण) पुरुष के समान ही हैं ॥३०॥
- अस्यैवार्थस्योपदर्शकं दृष्टान्तमाह -
- इसी अर्थ को स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार दृष्टान्त कहते हैं - जहा अस्साविणिं णावं, जाइअंधो दुरूहिया । इच्छई पारमागंतुं अंतरा य विसीयई
॥३१॥ छाया - यथा आसाविणी नावं जात्यन्धो दुरुह्य । इच्छति पारमागन्तुमन्तरा च विषीदति ॥
व्याकरण - (जहा) अव्यय (अस्साविणिं) नाव का विशेषण (णावं) कर्म (जाइअंधो) कर्ता (दुरूहिया) पूर्वकालिक क्रिया (इच्छई) क्रिया (पारं) कर्म (आगन्तुं) प्रयोजनार्थक क्रिया (अंतरा य) अव्यय (विसीयई) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (जाइअंधो) जन्मान्ध पुरुष (अस्साविणि) जिसमें जल प्रवेश करता है ऐसी (णावं) नौका पर (दुरूहिया) चढ़कर (पारं) पार (आगंतुं) जाने की (इच्छई) इच्छा करता है परन्तु (अन्तरा य) वह मध्य में ही (विसीयई) डूब जाता है।
भावार्थ - जैसे जन्मान्ध पुरुष, जिसमें जल प्रवेश करता हो, ऐसी नौका पर चढ़कर पार जाना चाहता है, परन्तु वह बीच जल में ही डूब कर मर जाता है।
टीका - आ-समन्तात्स्रवति तच्छीला वा आस्राविणी सच्छिद्रेत्यर्थः, तां तथाभूतां नावं यथा जात्यन्धः समारुह्य पारं तटं आगन्तुं प्राप्तुमिच्छत्यसौ, तस्याश्चास्राविणीत्वेनोदकप्लुतत्वाद् अन्तराले जलमध्ये एव विषीदति वारिणि निमज्जति तत्रैव च पञ्चत्वमुपयातीति ॥३१॥
टीकार्थ - जिसमें चारों तरफ से जल प्रवेश करता हो उसे 'आस्राविणी' कहते हैं, अर्थात् जिसमें छिद्र है, वह नाव आस्राविणी है । ऐसी नाव पर चढ़कर जैसे जन्मान्ध पुरुष नदी के पार जाना चाहता है। परन्तु आनाविणी होने के कारण वह नाव जल से भर जाती है और वह जन्मान्ध पुरुष मध्य जल में ही डूब जाता है और मर जाता है||३१॥ 1. हियं तु मण्णमाणा तु सेवंती अहियं जणा चू. ।