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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा २६ परसमयवक्तव्यतायां अज्ञानवादाधिकारः कहे गये हैं उनके ३२ भङ्ग होते हैं । उनमें प्रथम भङ्गवाला पुरुष, हिंसक है शेष ३१ भङ्गों में हिंसा नहीं होती है । कहा भी है
“प्राणी, प्राणी का ज्ञान, घातक का चित्त, घातक की क्रिया और प्राण-वियोग, इन पाँच बातों से हिंसा उत्पन्न होती है ||१||
क्या परिज्ञोपचित आदि के द्वारा एकान्त रूप से कर्म का उपचय नहीं होता है ? कहते हैं कि उनसे कुछ अव्यक्त मात्रा में कर्मबन्ध होता है, यह दिखाने के लिए सूत्रकार श्लोक का उत्तरार्ध बताते हैं (पुट्ठोत्ति) केवलमनोव्यापार रूप परिज्ञोपचित कर्म तथा केवल शरीर की क्रिया से उत्पन्न अविज्ञोपचित कर्म, एवं ई-पथ तथा स्वप्रान्तिक कर्म इन चार प्रकार के कर्मों से थोड़ा स्पर्श पाया हुआ वह पुरुष तत्कर्मा होता है । वह स्पर्श मात्र उन कर्मों का विपाक अनुभव करता है, क्योंकि उनका विपाक अधिक नहीं होता है, जैसे दीवाल पर मारी हुई बाल की मुट्ठी स्पर्श के बाद ही बिखर जाती है, इसी तरह ये चतुर्विध कर्म स्पर्श के बाद ही नष्ट हो जाते हैं। इसीलिए उन कर्मों के उपचय का अभाव कहते हैं, परन्तु सर्वथा अभाव नहीं कहते हैं। इस प्रकार उक्त चतुर्विध कर्म, अव्यक्त हैं अर्थात् परिस्फुट नहीं हैं । यहाँ 'खु' शब्द अवधारणार्थक है। इसलिए उक्त चतुर्विध कर्म अव्यक्त ही हैं क्योंकि उनका विपाक स्पष्ट अनुभव नहीं किया जाता है । अतः परिज्ञोपचित आदि कर्म, अव्यक्त रूप से पाप सहित हैं ॥२५॥
- ननु च यद्यनन्तरोक्तं चतुर्विधं कर्म नोपचयं याति कथं तर्हि कर्मोपचयो भवतीत्येतदाशङ्क्याह -
- यदि पूर्वोक्त चतुर्विध कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होता है तो कर्म का उपचय किस प्रकार होता है ? यह शङ्का कर के उक्तमतवालों की ओर से सूत्रकार कहते हैं - संतिमे तउ आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं । अभिकम्मा य पेसा य, मणसा अणुजाणिया
॥२६॥ छाया - सन्तीमानि त्रीण्यादानानि, यैः क्रियते पापकम् । अभिक्रम्य च प्रेष्य च मनसाऽनुज्ञाय ॥
व्याकरण - (संति) क्रिया (इमे तउ आयाणा) कर्ता (जेहिं) करण (पावर्ग) कर्म (कीरइ) क्रिया (अभिकम्मा) पूर्वकालिक क्रिया (पेसा) पूर्वकालिक क्रिया (मणसा) करण (अणुजाणिया) पूर्व कालिक क्रिया ।
अन्वयार्थ - (इमे) ये (तउ) तीन (आयाणा) कर्मबन्ध के कारण (संति) हैं (जेहिं) जिनसे (पावर्ग) पाप कर्म (कीरइ) किया जाता है (अभिकम्मा य) किसी प्राणी को मारने के लिए आक्रमण करके (पेसा य) तथा प्राणी को मारने के लिए नौकर आदि को भेजकर (मणसा अणुजाणिया) एवं मन से अनुज्ञा देकर।।
भावार्थ - ये तीन कर्म बन्ध के कारण हैं, जिनसे पापकर्म किया जाता है- किसी प्राणी को मारने के लिए स्वयं उस पर आक्रमण करना तथा नौकर आदि को भेजकर प्राणी का घात कराना एवं प्राणी को घात करने के लिए मन से अनुज्ञा देना ।
टीका - सन्ति विद्यन्ते अमूनि त्रीणि आदीयते स्वीक्रियते अमीभिः कर्मेत्यादानानि, एतदेव दर्शयति यैरादानैः क्रियते विधीयते निष्पाद्यते पापकं कल्मषं, तानि चामूनि तद्यथा- अभिक्रम्येति आभिमुख्येन वध्यं प्राणिनं क्रान्त्वातद्घाताभिमुखं चित्तं विधाय यत्र स्वत एव प्राणिनं व्यापादयति तदेकं कर्मादानं, अथाऽपरं च प्राणिघाताय प्रेष्यं समादिश्य यत् प्राणिव्यापादनं तद् द्वितीयं कर्मादानमिति, तथाऽपरं व्यापादयन्तं मनसाऽनुजानीत इत्येतत्तृतीयं कर्मादानं, परिज्ञोपचितादस्यायं भेदः- तत्र केवलं मनसा चिन्तनमिह त्वपरेण व्यापाद्यमाने प्राणिन्यनुमोदनमिति।।२६।।।
टीकार्थ - ये तीन आदान हैं, जिनके द्वारा कर्मबन्ध होता है उन्हें 'आदान' कहते हैं ? यही सूत्रकार दिखलाते हैं- जिन आदानों के द्वारा पाप कर्म किये जाते हैं वे आदान ये हैं- (१) वध्य प्राणी को मारने की इच्छा से स्वयमेव उस प्राणी को मारना यह एक कर्मादान है (२) तथा प्राणी को मारने के लिए किसी नौकर आदि को
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