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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा २५ परसमयवक्तव्यतायां अज्ञानवादाधिकारः यस्यासावाकुट्टी नाकुटयनाकुट्टी, इदमुक्तम्भवति-यो हि कोपादेनिमित्तात् केवलं मनोव्यापारेण प्राणिनो व्यापादयति न च कायेन प्राण्यवयवानां छेदनभेदनादिके व्यापारे वर्तते न तस्यावा, तस्य कर्मोपचयो न भवतीत्यर्थः । तथा अबुधोऽजानानः कायव्यापारमात्रेण यं च हिनस्ति प्राणिनं तत्रापि मनोव्यापाराभावान्न कर्मोपचय इति । अनेन च श्लोकार्थेन यदुक्तं नियुक्तिकृता यथा- "चतुर्विधं कर्म नोपचीयते भिक्षुसमय" इति, तत्र परिज्ञोपचितमविज्ञोपचिताख्यं भेदद्वयं साक्षादुपात्तं शेषं त्वी-पथस्वप्नान्तिकभेदद्वयं च शब्देनोपात्तं, तोरणमी--गमनं तत्संबद्धः पन्था ई-पथस्तत्प्रत्ययं कर्मे-पथम्-एतदुक्तं भवति पथि गच्छतो यथा कथञ्चिदनभिसन्धेर्यत् प्राणिव्यापादनं भवति तेन कर्मणश्चयो न भवति तथा स्वप्नान्तिकमिति-स्वप्न एव लोकोक्त्या स्वप्नान्तः स विद्यते यस्य तत्स्वप्नान्तिकं तदपि न कर्मबन्धाय, यथा स्वप्ने भुजिक्रियायां तृप्त्यभावस्तथा कर्मणोऽपीति, कथं तर्हि तेषां कर्मोपचयो भवतीति ? उच्यते, यद्यसौ हन्यमानः प्राणी भवति हन्तुश्च यदि प्राणीत्येवं ज्ञानमुत्पद्यते तथैनं हन्मीत्येवं च यदि बुद्धिः प्रादुःष्याद् एतेषु च सत्सु यदि कायचेष्टा प्रवर्तते तस्यामपि यद्यसौ प्राणी व्यापाद्यते ततो हिंसा ततश्च कर्मोपचयो भवतीति, एषामन्यतराभावेऽपिन हिंसा न च कर्मचयः । अत्र च पञ्चानां पदानां द्वात्रिंशद् भङ्गाः भवन्ति, तत्र प्रथमभङ्गे हिंसकोऽपरेष्वेकत्रिंशत्स्वहिंसकः। तथा चोक्तम्“प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्तं च तद्गता चेष्टा । प्राणैश्च विप्रयोगः पशभिरापाद्यते हिंसा ||१||"
किमेकान्तेनैव परिज्ञोपचितादिना कर्मोपचयो न भवत्येव ? भवति काचिदव्यक्तमात्रेति दर्शयितुं श्लोकपश्चार्धमाह- 'पटठो'त्ति तेन केवलमनोव्यापाररूपपरिज्ञोपचितेन केवलकायक्रियोत्थेन वाऽविजोप च चतुर्विधेनाऽपि कर्मणा स्पृष्ट ईषच्छुप्तः संस्तत्कर्माऽसौ स्पर्शमात्रेणैव परमनुभवति न तस्याधिको विपाकोऽस्ति कुडयापतितसिकतामुष्टिवत् स्पर्शानन्तरमेव परिशटतीत्यर्थः । अत एव तस्य चयाभावोऽभिधीयते न पुनरत्यन्ताभाव इति। एवं च कृत्वा तद् अव्यक्तम् अपरिस्फुटं, खुरवधारणे, अव्यक्तमेव, स्पष्टविपाकानुभवाभावात्, तदेवमव्यक्तं सहावद्येन-गāण वर्तते तत्परिज्ञोपचितादिकर्मेति ॥२५।।
टीकार्थ - जो पुरुष, जानता हुआ प्राणी की हिंसा करता है, परन्तु शरीर से अनाकुट्टी है अर्थात् शरीर से जीव हिंसा नहीं करता है, उसको कर्मबन्ध नहीं होता है । "कुट्ट" धातु का छेदन अर्थ है, वह छेदन जो करता है, उसे आकुट्टी कहते हैं । जो आकुट्टी नहीं है, उसे 'अनाकुट्टी' कहते हैं । आशय यह है कि, जो क्रोध आदि कारणवश, केवल मन के व्यापार से प्राणी की हिंसा करता है परन्तु शरीर से प्राणियों के अङ्गों का छेदन, भेदन रूप व्यापार, नहीं करता है, उसको अवद्य अर्थात् पाप कर्म का उपचय नहीं होता है । तथा जो पुरुष, नहीं जानता हुआ, केवल शरीर के व्यापार से प्राणी की हिंसा करता है, उसमें भी मन का व्यापार नहीं होने से कर्म का उपचय नहीं होता है । नियुक्तिकार ने जो पहले यह कहा है कि- "चतुर्विध कर्म, उपचय को प्राप्त नहीं होता है, यह भिक्षुओं का सिद्धान्त है।" उसमें परिज्ञोपचित और अविज्ञोपचित, ये दो भेद श्लोक के पूर्वार्ध द्वारा साक्षात् गृहीत हैं और शेष ई-पथ और स्वप्नान्तिक, ये दो भेद 'च' शब्द से संगृहीत हैं। यहाँ गमन को 'ई-' कहते हैं और तत्संबंधी मार्ग को 'ई-पथ' कहते हैं । उस ईर्ष्यापथ के कारण जो कर्म होता है, उसे 'ई-पथ' कहते हैं । आशय यह है कि- मार्ग में जाते समय जो बिना जाने प्राणी का घात हो जाता है, उससे कर्म का उपचय नहीं होता । तथा स्वप्नान्तिक कर्म भी बन्धन दाता नहीं होता। लोकोक्ति के अनुसार स्वप्न को ही स्वप्रान्त कहते वह स्वप्रान्त कर्म जिसमें विद्यमान है, उसे 'स्वप्रान्तिक' कहते हैं । वह स्वप्रान्तिक कर्म भी बन्ध का कारण नहीं होता है। जैसे स्वप्न में भोजन करने पर भी तृप्ति नहीं होती है, उसी तरह स्वप्न में किये हुए जीवघात से भी कर्मबन्ध नहीं होता है। उन भिक्षुओं को किसप्रकार कर्मबन्ध होता है ? कहते हैं कि वह मारा जाता हुआ यदि प्राणी होता है और मारनेवाले को यदि यह प्राणी है" ऐसा ज्ञान होता है तथा मारनेवाले की बुद्धि यह होती है कि "मैं इसे मारता हूँ" और इन सब के होते हुए यदि शरीर से वह मारने की चेष्टा करता है तथा चेष्टा होने पर भी यदि वह प्राणी मर जाता है तब हिंसा होती है और तभी कर्म का भी उपचय होता है । पूर्वोक्त इन बातों में से किसी एक के भी न होने पर न हिंसा होती है और नहीं कर्म का उपचय होता है । यहाँ जो पाँच पद