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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा २७-२८ परसमयवक्तव्यतायां अज्ञानवादाधिकारः भेजकर उस प्राणी का घात कराना यह दूसरा कर्मादान है । (३) तथा प्राणी का घात करते हुए पुरुष को मन से अनुज्ञा देना यह तीसरा कर्मादान है। परिज्ञोपचित कर्म से इसका भेद यह है- परिज्ञोपचित कर्म में केवल मन से चिन्तन मात्र होता है। परन्तु इसमें दूसरे के द्वारा मारे जाते हुए प्राणी के विषय में उसके घात का अनुमोदन किया जाता है ॥२६॥
__ - तदेवं यत्र स्वयं कृतकारितानुमतयः प्राणिघाते क्रियमाणे विद्यन्ते क्लिष्टाध्यवसायस्य प्राणातिपातश्च तत्रैव कर्मोपचयो नाऽन्यत्रेति दर्शयितुमाह -
- इस प्रकार जहाँ प्राणिघात के विषय में स्वयं करना, कराना और अनुमोदन ये तीन होते हैं तथा क्लिष्ट अध्यवसाय से प्राणी का घात किया जाता है, वहीं कर्म का उपचय होता है अन्यत्र नहीं होता, यह दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं - एते उ तउ आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं । एवं भावविसोहीए, निव्वाणमभिगच्छइ
॥२७॥ छाया - एतानि तु त्रीण्यादानानि येः क्रियते पापकम् । एवं भावविशुद्धया तु निर्वाणमभिगच्छति ॥
व्याकरण - (एते) सर्वनाम, कर्ता का विशेषण (उ) अव्यय (तउ) कर्ता का विशेषण (आयाणा) कर्ता (जेहिं) करण (कीरइ) क्रिया (पावर्ग) कर्म (एवं) अव्यय (भावविसोहीए) करण (निव्वाणं) कर्म (अभिगच्छइ) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (एते उ) ये (तउ) तीन (आयाणा) कर्मबन्ध के कारण हैं (जेहिं) जिनसे (पावर्ग) पाप कर्म (कीरइ) किया जाता है (एवं) इस प्रकार (भाव-विसोहीए) भाव की विशुद्धि से (निव्वाणं) मोक्ष को (अभिगच्छइ) प्राप्त करता है।
भावार्थ- ये तीन कर्म बन्ध के कारण हैं, जिनसे पाप कर्म किया जाता है । जहाँ ये तीन नहीं हैं तथा जहाँ भाव की विशुद्धि है, वहाँ कर्म बन्ध नहीं होता है, अपितु मोक्ष की प्रासि होती हैं।
___टीका - तुरवधारणे, एतान्येव पूर्वोक्तानि त्रीणि व्यस्तानि समस्तानि वा आदानानि यैर्दुष्टाध्यवसायसव्यपेक्षैः पापकं कर्मोपचीयत इति । एवं च स्थिते यत्र कृतकारितानुमतयः प्राणिव्यपरोपणं प्रति न विद्यन्ते तथा भावविशुद्धया अरक्तद्विष्टबुद्धया प्रवर्तमानस्य सत्यपि प्राणातिपाते केवलेन मनसा कायेन वा मनोऽभिसन्धिरहितेनोभयेन वा विशुद्धबुद्धेर्न कर्मोपचयः, तदभावाच्च निर्वाणं सर्वद्वन्द्वोपरतिस्वभावम् अभिगच्छति आभिमुख्येन प्राप्नोतीति ॥२७॥
टीकार्थ - यहाँ 'तु' शब्द अवधारणार्थक है, अतः पूर्वोक्त ये ही तीन प्रत्येक तथा सम्पूर्ण, कर्मबन्ध के कारण हैं। इन तीनों में अध्यवसाय दुष्ट रहता है, इसलिए इनके द्वारा पाप कर्म का उपचय होता है। ऐसी स्थिति में जहाँ प्राणी के घात के प्रति करना, कराना और अनुमोदन ये तीन नहीं हैं, तथा रागद्वेष रहित बुद्धि से जो प्रवृत्ति करता है, वहाँ केवल मन से अथवा शरीर से अथवा मानसिक अभिप्राय रहित दोनों से प्राणातिपात हो जाने पर भी भाव विशुद्धि के कारण कर्म का उपचय नहीं होता है और कर्म का उपचय न होने के कारण जीव सब झंझटों से रहित मोक्ष को प्राप्त करता है ॥२७॥
- भावशुद्धया प्रवर्तमानस्य कर्मबन्धो न भवतीत्यत्राऽर्थे दृष्टान्तमाह - ___ - भावशुद्धि से प्रवृत्ति करनेवाले पुरुष को कर्म बन्ध नहीं होता है । इस विषय में शास्त्रकार अन्य दर्शनी की ओर से कहते हैं - पुत्तं पिया समारब्भ, आहारेज्ज असंजए । भुंजमाणो य मेहावी, कम्मणा नोवलिप्पइ
॥२८॥ 1. भावणसुद्धीए चू. ।