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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा १७
परसमयवक्तव्यतायामज्ञानवादाधिकारः व्याकरण - (एवं) अव्यय (अन्नाणिया) कर्ता (नाणं) कर्म (वयंता) कर्ता का विशेषण (अवि) अव्यय (सयं सयं) अव्यय (निच्छयत्थं) कर्म (न) अव्यय (याणंति) क्रिया (मिलक्खुव्व) उपमान कर्ता (अबोहिया) कर्ता का विशेषण ।
अन्वयार्थ - (एवं) इसी तरह (अन्नाणिया) ज्ञानहीन ब्राह्मण और श्रमण (सयं सयं नाणं वयंतावि) अपने-अपने ज्ञान को कहते हुए भी (निच्छयत्थं) निश्चित अर्थ को (न याणंति) नहीं जानते हैं (मिलक्खुव्व) किन्तु पूर्वोक्त म्लेच्छ की तरह (अबोहिया) ज्ञान रहित हैं।
भावार्थ - इसी तरह ज्ञानवर्जित ब्राह्मण और श्रमण, अपने-अपने ज्ञान को कहते हुए भी निश्चित अर्थ को नहीं जानते हैं, किन्तु आर्यभाषा का अनुवाद मात्र करनेवाला अर्थ-ज्ञानहीन पूर्वोक्त म्लेच्छ की तरह बोध रहित हैं।
टीका - यथा म्लेच्छोऽम्लेच्छस्य परमार्थमजानानः केवलं तद्भाषितमनुभाषते तथा अज्ञानिकाः सम्यग्ज्ञानरहिताः श्रमणाः ब्राह्मणा वदन्तोऽपि स्वीयं स्वीयं ज्ञानं प्रमाणत्वेन परस्परविरुद्धार्थभाषणाद् निश्चयार्थं न जानन्ति, तथाहि- ते स्वकीयं तीर्थकरं सर्वज्ञत्वेन निर्धार्य तदुपदेशेन क्रियासु प्रवर्तेरन्, न च सर्वज्ञविवक्षा अर्वाग्दर्शिना ग्रहीतुं शक्यते, 'नासर्वज्ञः सर्वज्ञं जानाती'ति न्यायात् । तथा चोक्तम्
“सर्वज्ञोऽसाविति होतत्तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः । तद्ज्ञानशेयविज्ञानरहितै गम्यते कथम्" ||१|| ___ एवं परचेतोवृत्तीनां दुरन्वयत्वादुपदेष्टुरपि यथावस्थितविवक्षया ग्रहणासम्भवान्निश्चयार्थमजानानाः म्लेच्छवदपरोक्तमनभाषन्त एव अबोधिका बोधरहिताः केवलमिति. अतोऽज्ञानमेव श्रेय इति । एवं यावद्यावज्ज्ञानाभ्युपगमस्तावत्तावद गुरुतरदोषसम्भवः । तथाहि- योऽवगच्छन् पादेन कस्यचित् शिरः स्पृशति तस्य महानपराधो भवति यस्त्वनाभोगेन स्पृशति तस्मै न कश्चिदपराध्यतीति, एवं चाज्ञानमेव प्रधानभावमनुभवति, न तु ज्ञानमिति ॥१६॥
टीकार्थ - जैसे म्लेच्छ पुरुष, अम्लेच्छ यानी आर्य पुरुष के भाषण का सत्य अर्थ न जानता हुआ केवल उसके भाषण का अनुवाद मात्र करता है, उसी तरह सम्यग् ज्ञान रहित कोई श्रमण और ब्राह्मण, अपने-अपने ज्ञान को प्रमाण रूप से कहते हुए भी परस्पर विरुद्ध अर्थ भाषण करने के कारण निश्चित अर्थ को नहीं जानते हैं । आशय यह है कि- वे अपने तीर्थङ्कर को सर्वज्ञ समझकर उनके उपदेश से क्रिया में प्रवृत्त होंगे परन्तु सर्वज्ञ की विवक्षा (अभिप्राय) को अर्वाग्दर्शी (सामने की वस्तु को देखनेवाला) पुरुष नहीं जान सकता क्योंकि जो सर्वज्ञ नहीं है, वह सर्वज्ञ को नहीं जान सकता । जैसा कि कहा है
"जिसको सर्वज्ञ के ज्ञान और ज्ञेय का ज्ञान नहीं है, उसके पास यदि सर्वज्ञ हो तो भी "यह सर्वज्ञ है", यह वह कैसे जान सकता है?"||
तथा दूसरे की चित्तवृति दुर्ग्राह्य होती है और उपदेशक पुरुष की यथार्थवादिता भी जानना संभव नहीं है, अत: निश्चित अर्थ को न जाननेवाले ज्ञानवादी पूर्वोक्त म्लेच्छ पुरुष की तरह केवल दूसरे की उक्ति का अनुवाद मात्र करते हैं । परन्तु वस्तुतः वे बोध रहित हैं, तस्मात् अज्ञान ही श्रेष्ठ है। इसी तरह ज्यों-ज्यों ज्ञान बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों गुरुतर दोष भी बढ़ता जाता है। जो जानकर दूसरे के शिर को पैर से स्पर्श करता है, उसका महान् अपराध होता है और जो भूल से दूसरे के शिर को पैर से स्पर्श करता है, उसका कुछ भी अपराध नहीं माना जाता है, अतः अज्ञान ही प्रधान है, ज्ञान नहीं ॥१६॥
- एवमज्ञानवादिमतमनूचेदानीं तदूषणायाह -
- इस प्रकार अज्ञानवादी का मत बताकर शास्त्रकार उसे दूषित करने के लिए कहते हैं - अन्नाणियाणं वीमंसा, अण्णाणे ण विनियच्छइ । अप्पणो य परं नालं, कुतो अन्नाणुसासिउं?
॥१७॥ छाया - अज्ञानिकानां विमर्शः, अज्ञाने न विनियच्छति । आत्मनश्च परं नालं कुतोऽन्याननुशासितुम् ॥
व्याकरण - (अन्नाणियाणं) सम्बन्ध षष्ठ्यन्त (वीमंसा) कर्ता (अण्णाणे) अधिकरण (ण) अव्यय (विनियच्छइ) क्रिया (अप्पणो) (कर्म) (य) अव्यय (परं) कर्म (नालं) अव्यय (कुतो) अव्यय (अन्ना) कर्म (अणुसासिउं) क्रिया ।