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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा १३-१४ परसमयवक्तव्यतायामज्ञानवादाधिकारः
- भूयोऽप्यज्ञानवादिनां दोषाभिधित्सयाऽऽह -
- और भी अज्ञानवादियों का दोष बताने के लिए सूत्रकार कहते हैं - जे एयं नाभिजाणंति, मिच्छदिट्ठी अणारिया । मिगा वा पासबद्धा ते, घायमेसंति णंतसो
॥१३॥ छाया - य एतवाभिजानन्ति मिथ्यादृष्टयोऽनााः । मृगा वा पाशबद्धास्ते घातमेष्यन्त्यनन्तशः ॥
व्याकरण - (जे) मिथ्यादृष्टि का विशेषण सर्वनाम (एयं) कर्म (न) अव्यय (अभिजाणंति) क्रिया । (मिच्छदिट्ठी) कर्ता (अणारिया) मिथ्यादृष्टि का विशेषण (मिगा) उपमान कर्ता (वा) इवार्थक अव्यय (पासबद्धा ते) मिथ्यादृष्टि का विशेषण (घायं) कर्म (एसंति) क्रिया (णंतसो) अव्यय।
अन्वयार्थ - (जो) जो (मिच्छदिट्ठी) मिथ्यादृष्टि (अणारिया) अनार्य पुरुष (एयं) इस अर्थ को (नाभिजाणंति) नहीं जानते हैं (मिगा वा) मृग के समान (पासबद्धा) पाश में बद्ध (ते) वे (णंतसो) अनन्तवार (घायं) घात को (एसंति) प्राप्त करेंगे।
भावार्थ - जो मिथ्यादृष्टि, अनार्य पुरुष इस अर्थ को नहीं जानते हैं, वे पासबद्ध मृग की तरह अनन्तबार घात को प्राप्त करेंगे।
टीका - येऽज्ञानपक्षं समाश्रिता एनं कर्मक्षपणोपायं न जानन्ति, आत्मीयाऽसद्ग्रहग्रस्ता मिथ्यादृष्टयोऽना-स्ते मृगा इव पाशबद्धाः घातं विनाशमेष्यन्ति यास्यन्त्यन्वेषयन्ति वा, तद्योग्यक्रियानुष्ठानाद् अनन्तशोऽविच्छेदेनेत्यज्ञानवादिनो गताः ॥१३॥
टीकार्थ - अज्ञान पक्ष का आश्रय लिये हुए जो पुरुष, इस कर्मक्षपण के उपाय को नहीं जानते हैं, किन्तु अपने असत् आग्रह से ग्रसित मिथ्यादृष्टि तथा अनार्य हैं, वे पाशबद्ध मृग के समान घात के योग्य कर्म का अनुष्ठान करके अनंत-काल के लिए घात यानी विनाश को प्राप्त करेंगे अथवा वे विनाश को ढूँढते हैं । अज्ञानवादी कहे गये ॥१३॥
- इदानीमज्ञानवादिनां दूषणोद्विभावयिषया स्ववाग्यन्त्रिता वादिनो न चलिष्यन्तीति तन्मताविष्करणायाह - __ - अब सूत्रकार अज्ञानवादियों के मत को दूषित करने के लिए उनका मत बतलाते हैं। जिससे अज्ञानवादी अपने वचन में बँधकर इधर-उधर नहीं जा सकेंगे । माहणा समणा एगे, सव्वे नाणं सयं वए । सव्वलोगेऽवि जे पाणा, न ते जाणंति किंचण
॥१४॥ छाया - ब्राह्मणाः श्रमणा एके सर्वे ज्ञानं स्वकं वदन्ति । सर्वलोकेऽपि ये प्राणाः, न ते जानन्ति किशन ||
__व्याकरण - (माहणा) कर्ता (समणा) कर्ता (एगे) माहण और समणा का विशेषण (सव्वे) विशेषण (सयं नाणं) कर्म (वए) क्रिया (सव्वलोगे) अधिकरण (अवि) अव्यय (जे) सर्वनाम (पाणा) कर्ता (ते) सर्वनाम, प्राणी का विशेषण (किंचण) अव्यय (न) अव्यय (जाणंति) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (एगे) कोई (माहणा) ब्राह्मण (समणा) श्रमण (सव्वे) सब (सयं) अपना (नाणं) ज्ञान (वए) बताते हैं (तु) परन्तु (सव्वलोगेऽवि) सब लोक में (जे) जो (पाणा) प्राणी हैं (ते) वे (किंचण) कुछ (न जाणंति) नहीं जानते हैं ।
भावार्थ - कोई ब्राह्मण और श्रमण ये सभी अपना-अपना ज्ञान बताते हैं, परन्तु सब लोक में जितने प्राणी हैं वे सब कुछ नहीं जानते हैं ।
___टीका - एके केचन ब्राह्मणविशेषास्तथा 'श्रमणाः' परिव्राजकविशेषाः सर्वेऽप्येते ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानंहेयोपादेयार्थाऽऽविर्भावकं परस्परविरोधेन व्यवस्थितं स्वकमात्मीयं वदन्ति न च तानि ज्ञानानि परस्परविरोधेन