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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा १२ परसमयवक्तव्यतायांअज्ञानवादाधिकारः
भावार्थ - मूर्ख, अविवेकी और शास्त्रज्ञान वर्जित वे अन्यतीर्थी, धर्म की जो प्ररूपणा है, उसमें शङ्का करते हैं और आरम्भ में शङ्का नहीं करते हैं।
टीका - धर्मस्य-क्षान्त्यादिदशलक्षणोपेतस्य या प्रज्ञापना-प्ररूपणा तां तु इति तामेव शङ्कन्तेऽसद्धर्मप्ररूपणेयमित्येवमध्यवस्यन्ति ये पुनः पापोपादानभूताः समारम्भास्तान्नाशङ्कन्ते, किमिति ? यतोऽव्यक्ताः मुग्धाः सहजसद्विवेकविकलाः तथा अकोविदा अपण्डिताः सच्छास्त्रावबोधरहिता इति ॥११॥
टीकार्थ - क्षान्ति आदि दश प्रकार का धर्म है, उसकी जो प्ररूपणा है, उसी में वे मूर्ख शङ्का करते हैं। उसे वे अधर्म की प्ररूपणा समझते हैं । तथा पाप के कारण स्वरूप आरम्भों में शङ्का नहीं क क्यों करते हैं ? क्योंकि वे स्वभावतः सद् विवेक से रहित हैं। तथा वे सत् शास्त्र के विवेक से वर्जित हैं ॥११॥
- ते च अज्ञानावृता यन्नाप्नुवन्ति तद्दर्शनायाह
- वे अज्ञानी जिस वस्तु को प्राप्त नहीं कर सकते हैं, उसे दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं - सव्वप्पगं विउक्कस्सं, सव्वं णूमं विहूणिया । अप्पत्तिअं अकम्मसे, एयमढें मिगे चुए
॥१२।। छाया - सर्वात्मकं व्युत्कर्ष सर्व छादकं विधूय । अप्रत्ययमकांश एतमर्थं मृगस्त्यजेत् ॥
व्याकरण - (सव्वप्पगं, विउक्कस्सं, सव्वं णूमं, अप्पत्तियं) कर्म (विहूणिया) पूर्वकालिक क्रिया (अकम्मंसे) कर्ता (एयं अटुं) कर्म (मिगे) कर्ता (चुए) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (सव्वप्पगं) सर्वात्मक-लोभ (विउक्कस्स) विविध प्रकार का उत्कर्ष, मान (सव्वं) सर्व (णूमं) माया (अप्पत्तियं) और क्रोध को (विहूणिया) त्यागकर (अकर्मसे) जीव कांश रहित होता है (एयं अट्ठ) परन्तु इस अर्थ को (मिगे) मृग के समान अज्ञानी जीव (चुए) त्याग देता है।
भावार्थ - लोभ, मान, माया और क्रोध को छोड़कर जीव काश रहित होता है परन्तु मृग के समान अज्ञानी जीव, इसे छोड़ देता है।
टीका - सर्वत्राऽप्यात्मा यस्याऽसौ सर्वात्मको लोभस्तं विधूयेति सम्बन्धः । तथा विविध उत्कर्षों गर्वो व्युत्कर्षो, मान इत्यर्थः, तथा 'णूमं' ति माया तां विधूय तथा 'अप्पत्तियं' त्ति क्रोधं विधूय, कषायविधूननेन च मोहनीय-विधूननमावेदितं भवति, तदपगमाच्चाशेषकर्माभावः प्रतिपादितो भवतीत्याह- 'अकर्मांश' इति न विद्यते काँशोऽस्येत्यकांशः, स चाकांशो विशिष्टज्ञानाद् भवति नाऽज्ञानादित्येव दर्शयति-एनमर्थं कर्माभावलक्षणं मृग इव मृगः- अज्ञानी 'चुए' त्ति त्यजेत् । विभक्तिविपरिणामेन वा अस्मादेवंभूतादर्थात् च्यवेत् भ्रश्येदिति ॥१२॥
टीकार्थ - जिसका आत्मा सर्वत्र है, उसे 'सर्वात्मक' कहते हैं । वह लोभ है । उस लोभ को छोड़कर यह सम्बन्ध है । तथा विविध प्रकार का उत्कर्ष यानी गर्व व्युत्कर्ष कहलाता है । वह मान है। तथा 'णूम' माया को कहते हैं। उस गर्व तथा माया को छोड़कर तथा क्रोध को छोड़कर जीव अकांश यानी समस्त कर्मों से रहित होता है। यहाँ कषाय का त्याग कहने से मोहनीय कर्म का भी त्याग कहा गया है और मोहनीय कर्म के त्याग से समस्त कर्मों का अभाव कहा गया है । यह बताने के लिए कहते हैं 'अकम्मंसे' अर्थात् जिसका कर्म, अंश मात्र भी शेष नहीं है, उसे अकांश कहते हैं । वह अकांश विशिष्ट ज्ञान से होता है, अज्ञान से नहीं होता है । यही सूत्रकार दिखलाते हैं कि- “एयमटुं" अर्थात् इस कर्म के अभाव रूप अर्थ को मृग के समान अज्ञानी जीव त्याग देता है। अथवा विभक्ति का विपरिणाम करके यह अर्थ करना चाहिए कि इस अर्थ से अज्ञानी भ्रष्ट हो जाता है ॥१२॥