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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा ४
परसमयवक्तव्यतायान्नियतिवादाधिकारः ___ यत्तु समाने पुरुषव्यापारे फलवैचित्र्यं दूषणत्वेनोपन्यस्तं तददूषणमेव, यतस्तत्रापि पुरुषकारवैचित्र्यमपि फलवैचित्र्ये कारणं भवति, समाने वा पुरुषकारे यः फलाभावः कस्यचिद्भवति सोऽदृष्टकृतः, तदपि चाऽस्माभिः कारणत्वेनाश्रितमेव । तथा कालोऽपि कर्ता, यतो बकुलचम्पकाशोकपुन्नागनागसहकारादीनां विशिष्ट एव काले पुष्पफलाद्युद्भवो न सर्वदेति, यच्चोक्तं- 'कालस्यैकरूपत्वाज्जगद्वैचित्र्यं न घटत' इति, तदस्मान् प्रति न दूषणं यतोऽस्माभिर्न काल एवैकः कर्तृत्वेनाऽभ्युपगम्यतेऽपि तु कर्माऽपि, ततो जगद्वैचित्र्यमित्यदोषः । तथेश्वरोऽपि कर्ता, आत्मैव हि तत्र तत्रोऽत्पत्तिद्वारेण सकलजगद्व्यापनादीश्वरः, तस्य सुखदुखोत्पत्तिकर्तृत्वं सर्ववादिनामविगानेन सिद्धमेव। यच्चात्र मूर्तामूर्तादिकं दूषणमुपन्यस्तं तदेवंभूतेश्वरसमाश्रयणे दूरोत्सादितमेवेति । स्वभावस्याऽपि कथञ्चित् कर्तृत्वमेव, तथाहि- आत्मन उपयोगलक्षणत्वमसंख्येयप्रदेशत्वं पुद्गलानां च मूर्तत्वं धर्माधर्मास्तिकाययोर्गतिस्थित्युपष्टम्भकारित्वममूर्तत्वं चेत्येवमादि स्वभावापादितम् । यदपि चात्रात्मव्यतिरेकाव्यतिरेकरूपं दूषणमुपन्यस्तं तददूषणमेव, यतः स्वभाव आत्मनोऽव्यतिरिक्तः, आत्मनोऽपि च कर्तृत्वमभ्युपगतमेतदपि स्वभावापादितमेवेति । तथा कर्माऽपि कर्तृ भवत्येव, तद्धि जीवप्रदेशैः सहाऽन्योऽन्यानवेधरूपतया व्यवस्थितं कथञ्चिच्चात्मनोऽभिन्नं, तद्वशाच्चात्मा नारकतिर्य्यङ्मनुष्यामरभवेषु पर्यटन् सुखदुःखादिकमनुभवतीति । तदेवं नियत्यनियत्योः कर्तृत्वे युक्त्युपपन्ने सति नियतेरेव कर्तृत्वमभ्युपगच्छन्तो निर्बुद्धिकाः भवन्तीत्यवसेयम् ॥४॥
टीकार्थ - इस गाथा में पूर्वोक्त नियतिवादी के कथन को प्रदर्शित करने के लिए 'एवं' शब्द आया है। पूर्वोक्त नियतिवाद सम्बन्धी वचनों को कहनेवाले नियतिवादी सत् और असत् के विवेक से रहित बालक के समान अज्ञ होते हुए भी अपने को पण्डित मानते हैं । नियतिवादियों को अज्ञानी और पण्डितमानी क्यों कहा जाता है? इसका समाधान देने के लिए सूत्रकार कहते हैं कि- “निययानिययं संतं"। अर्थात् कोई सुख आदि नियत अवश्य होनेवाले यानी उदय को प्राप्त होते हैं तथा कोई अनियत यानी अपना उद्योग और ईश्वर आदि के द्वारा किये हुए अनियत होते हैं, तथापि नियतिवादी सभी सुख-दुःखों को एकान्त रूप से नियतिकृत ही बतलाते हैं, इसलिए सुखदुःख के कारण को न जाननेवाले वे नियतिवादी बुद्धि हीन हैं । आर्हतों का मत है कि कुछ सुख-दुःख आदि नियति से ही होते हैं, क्योंकि उन सुख-दुःखों के कारण स्वरूप कर्म का किसी अवसर विशेष में अवश्य उदय होता है, इसलिए वे सुख-दुःख नियतिकृत हैं । तथा कोई सुख-दुःख, नियतिकृत नहीं होते हैं, किंतु पुरुष के उद्योग, काल, ईश्वर, स्वभाव और कर्म आदि के द्वारा किये हुए होते हैं । अतः आर्हत लोग सुख-दुःख आदि को कथंचित् उद्योगसाध्य भी मानते हैं। कारण यह है कि क्रिया से फल की उत्पत्ति होती है और वह क्रिया उद्योग के आधीन है । अत एव कहा है कि
"न दैवमिति" इत्यादि । अर्थात् जो भाग्य में है वही होगा, यह सोचकर उद्योग नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि उद्योग के बिना तिलों में से तेल कौन प्राप्त कर सकता है ? | नियतिवादी ने जो यह दोष दिया है कि "उद्योग समान होने पर भी फल में विचित्रता देखी जाती है", वस्तुतः यह दूषण नहीं है क्योंकि उद्योग की विचित्रता भी फल की विचित्रता का कारण होती है तथा समान उद्योग करने पर भी जो किसी को फल नहीं मिलता है, वह उसके अदृष्ट (भाग्य) का फल है । उस अदृष्ट को भी हम लोग (आर्हत) सुख-दुःख आदि का कारण मानते हैं । इसी तरह काल भी कर्ता है। क्योंकि बकुल, चम्पक, अशोक, पुन्नाग, नाग और आम आदि वृक्षों में विशिष्ट काल में ही फूल फल की उत्पत्ति होती है, सर्वदा नहीं होती है । नियतिवादियों ने जो यह कहा है कि- "काल एकरूप है, इसलिए उससे विचित्र जगत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती है ।" यह भी हम लोगों के लिए दोष नहीं है क्योंकि हम लोग एकमात्र काल को ही कर्ता नहीं मानते हैं, अपितु कर्म को भी कर्ता मानते हैं । अतः कर्म की विचित्रता के कारण जगत् की विचित्रता होती है । इसलिए हमारे आहेतों के मत में कोई दोष नहीं है। तथा ईश्वर भी जगत् का कर्ता है क्योंकि आत्मा ही भिन्न-भिन्न योनियों में उत्पन्न होता हुआ सर्वव्यापक होने के कारण ईश्वर है । वह ईश्वर सुख-दुःख की उत्पत्ति का कर्ता है। यह सर्वमतवादियों के मत में निर्विवाद सिद्ध है । "सुखदुःख का कर्ता ईश्वर है।" इस मत को दूषित करने के लिए नियतिवादी ने जो "आत्मा मूर्त है अथवा अमूर्त है" इत्यादि दूषण दिया है, वह दूषण भी आत्मा को ईश्वर मान लेने पर दूर हट जाता है। तथा स्वभाव भी कथञ्चित्
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