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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा ५
परसमयवक्तव्यतायांनियतिवादाधिकारः कर्ता है क्योंकि आत्मा का उपयोग स्वरूप तथा असंख्य-प्रदेशी होना, एवं पदलों का मर्त्तत्व एवं धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का गति-स्थिति का सहायक होना और अमूर्त होना यह सब स्वभावकृत ही है । "स्वभाव आत्मा से भिन्न है अथवा अभिन्न है" इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा नियतिवादी ने जो स्वभाव कर्तृत्व में दोष बताया है, वह भी दोष नहीं है क्योंकि स्वभाव आत्मा से भिन्न नहीं है और आत्मा कर्ता है, यह हमने स्वीकार किया है । अतः आत्मा का कर्तृत्व भी स्वभाव कृत ही है । तथा कर्म भी कर्ता है ही, क्योंकि वह जीव-प्रदेश के साथ परस्पर मिलकर रहता हुआ कथंचित् जीव से अभिन्न है और उसी कर्म के वश आत्मा, नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और अमरगति में भ्रमण करता हुआ सुख-दुःख को भोगता है । इस प्रकार नियति और अनियति इन दोनों का कर्तृत्व युक्ति से सिद्ध होते हुए भी केवल नियति को ही कर्ता मानने वाले नियतिवादी बुद्धि हीन है, यह जानना चाहिए ॥४॥
___ - तदेवं युक्त्या नियतिवादं दूषयित्वा तद्वादिनामपायदर्शनायाह -
- इस प्रकार युक्ति के द्वारा नियतिवाद को दूषित करके सूत्रकार नियतिवादियों का विनाश दिखाने के लिए कहते हैं । एवमेगे उ पासत्था, 'ते भुज्जो विप्पगब्भिआ । एवं उवट्ठिआ संता, उण ते दुक्खविमोक्खया
।।५।। छाया - एवमेके तु पार्श्वस्थास्ते भूयो विप्रगल्भिताः । एवमुपस्थिताः सन्तो न ते दुःखविमोक्षकाः ||
व्याकरण - (एवं) अव्यय (एगे) पार्थस्थ का विशेषण (पासत्था) कर्तृवाचक प्रथमान्त (ते) पार्थस्थपरामर्शकसर्वनाम (भुज्जो) क्रिया विशेषण (विप्पगब्मिया) पार्श्वस्थ का विशेषण (एवं) अव्यय (उवट्ठिया, संता, ते, दुक्खविमोक्खया) ये सब पार्धस्थ के विशेषण ।
अन्वयार्थ - (एवं) इस प्रकार (एगे उ) कोई (पासत्था) पार्थस्थ कहते हैं (ते) वे (भुज्जो) बार-बार (विप्पगब्मिया) नियतिमात्र को कर्ता कहने की धृष्टता करते हैं (एवं) इस प्रकार (उवट्ठिआ संता) अपने सिद्धान्तानुसार पारलौकिक क्रिया में उपस्थित होकर भी (ते) वे (दुक्खविमोक्खया) दुःख छुड़ाने में समर्थ (न) नहीं हैं ।
___भावार्थ - नियति को ही सुख-दुःख का कर्ता माननेवाले नियतिवादी पूर्वोक्त प्रकार से एकमात्र नियति को ही कर्ता बताने की धृष्टता करते हैं । वे अपने सिद्धान्तानुसार परलोक की क्रिया में प्रवृत्त होकर भी दुःख से मुक्त नहीं हो सकते हैं। ___टीका - एवमिति पूर्वाऽभ्युपगमसंसूचकः, सर्वस्मिन्नपि वस्तुनि नियतानियते सत्येके नियतिमेवाऽवश्यम्भाव्येव कालेश्वरादेर्निराकरणेन निर्हेतुकतया नियतिवादमाश्रिताः । तुरवधारणे, त एव नान्ये, किं विशिष्टाः पुनस्ते इति दर्शयति युक्तिकदम्बकाद् बहिस्तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः परलोकक्रियापार्श्वस्था वा, नियतिपक्षसमाश्रयणात्परलोकक्रिया-वैयर्थ्य, यदि वा- पाश इव पाश:- कर्मबन्धनं, तच्चेह युक्तिविकलनियतिवादप्ररूपणं तत्र स्थिताः पाशस्थाः । अन्येऽप्येकान्तवादिनः कालेश्वरादिकारणिकाः पार्श्वस्थाः पाशस्था वा द्रष्टव्या इत्यादि । ते पुनर्नियतिवादमाश्रित्याऽपि, भूयो विविधं विशेषण वा प्रगल्भिता धाष्टोपगताः परलोकसाधिकासु क्रियासु प्रवर्तन्ते । धाष्टाश्रयणं तु तेषां नियतिवादाश्रयणे सत्येव पुनरपि तत्प्रतिपन्थिनीषु क्रियासु प्रवर्तनादिति । ते पुनरेवमप्युपस्थिताः परलोकसाधिकासु क्रियासु प्रवृत्ता अपि सन्तो नात्मदुःखविमोक्षकाः । असम्यक्प्रवृत्तत्वान्नात्मानं दुःखाद्विमोचयन्ति । गता नियतिवादिनः।।५।। ___टीकार्थ - इस गाथा में ‘एवं' शब्द, पूर्वोक्त नियतिवादी के मन्तव्य को सूचित करता है । सभी वस्तु नियत और अनियत दोनों प्रकार की हैं, तथापि कोई पुरुष, काल और ईश्वर आदि को छोड़कर केवल नियति यानी अवश्यम्भावी को ही बिना कारण कर्ता मानते हैं । यहाँ 'तु' शब्द अवधारण अर्थ में है, इसलिए वे नियतिवादी ही ऐसा मानते हैं, दूसरे नहीं । वे नियतिवादी कैसे हैं ? यह सूत्रकार दिखलाते हैं- वे नियतिवादी पार्श्वस्थ हैं । जो युक्तिसमूह से बाहर रहता है, उसे 'पार्श्वस्थ' कहते हैं । अथवा वे नियतिवादी परलोक की क्रिया से बाहर रहते हैं, 1. अजाणता चू. । 2. पुवट्ठिता चू. । 3. दुःखविमोयगा चू. ।