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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा ८
परसमयवक्तव्यतायांअज्ञानवादाधिकारः ___ पुनरप्येतदेवातिमोहाविष्करणायाह- परित्रायते इति परित्राणं तज्जातं येषु तानि तथा, परित्राणयुक्तान्येव शङ्कमाना अतिमूढत्वाद्विपर्यस्तबुद्धयः त्रातर्यपि भयमुत्प्रेक्षमाणाः तथा पाशितानि पाशोपेतानि-अनर्थापादकान्यशङ्किनस्तेषु शङ्कामकुर्वाणाः सन्तोऽज्ञानेन भयेन च संविग्गत्ति सम्यग्व्याप्ताः वशीकृताः शङ्कनीयमशङ्कनीयं वा तथा परित्राणोपेतं पाशाद्यनर्थोपेतं वा सम्यविवेकेनाजानानास्तत्र तत्रानर्थबहुले पाशवागुरादिके बन्धने सम्पर्य्ययन्ते-सम् एकीभावेन परि-समन्तादयन्ते यान्ति वा गच्छन्तीत्युक्तं भवति । तदेवं दृष्टान्तं प्रसाध्य नियतिवादाद्येकान्ताज्ञानवादिनो दार्टान्तिकत्वेनाऽऽयोज्याः, यतस्तेऽप्येकान्तवादिनोऽज्ञानिकास्त्राणभूताऽनेकान्तवादवर्जिताः सर्वदोषविनिर्मुक्तं कालेश्वरादिकारणवादाऽभ्युपगमेनानाशङ्कनीयमनेकान्तवादमाशङ्कन्ते, शङ्कनीयं च नियत्यज्ञानवादमेकान्तं न शङ्कन्ते, ते एवंभूताः परित्राणार्हेऽप्यनेकान्तवादे शङ्कां कुर्वाणा युक्त्याऽघटमानकमनर्थबहुलमेकान्तवादमशङ्कनीयत्वेन गृह्णन्तोज्ज्ञानावृतास्तेषु तेषु कर्मबन्धनस्थानेषु सम्पर्य्ययन्त इति ॥७॥
___टीकार्थ - जैसे वेगवान् मृग अर्थात् जङ्गली पशु परित्राण (रक्षक) रहित होते हैं । जो चारों तरफ से रक्षा करता है, उसे 'परित्राण' कहते हैं, उससे वे रहित होते हैं अर्थात् उनका कोई रक्षक नहीं होता है । अथवा पाश आदि बन्धन को 'परितान' कहते हैं। उस परितान से भय पाये हए वे पश भय से चञ्चल नेत्र तथा उद्विग्न हृदयवाले हो जाते हैं । वे सम्यक् विवेक से रहित होकर कूटपाश आदि से रहित तथा शङ्का के अयोग्य स्थानों में ही शङ्का करते हैं । वे उस स्थान को अनर्थजनक मानते हैं और जो शंका करने योग्य पाश बंधन आदि है, उनमें शङ्का नहीं करते । अतः वे पशु, पाश आदि बन्धनों में ही जा पड़ते हैं, यह अगले श्लोक से सम्बन्ध करना चाहिए।६।।
फिर भी सूत्रकार इसी अतिमोह को प्रकट करने के लिए कहते हैं- अति मूर्खता के कारण विपरीत ज्ञानवाले, तथा जो स्थान रक्षा युक्त है, उसी में शङ्का करनेवाले अर्थात् जो रक्षा करनेवाला है उसमें भी भय की शङ्का करनेवाले, एवं अनर्थ-जनक पाशयुक्त स्थान में शङ्का नहीं करनेवाले, अज्ञान और भय से पूर्ण हृदय वे पशु जैसे शङ्कनीय अथवा अशङ्कनीय तथा रक्षायुक्त और पाश आदि अनर्थ युक्त स्थान को अच्छी तरह विवेक के साथ नहीं जानते हुए अनर्थ बहुल पाश-वागुरा आदि बन्धनों में ही जा पड़ते हैं। इस प्रकार दृष्टान्त बताकर नियतिवादी आदि तथा एकान्त अज्ञानवादियों को दार्टान्तरूप से योजना करनी चाहिए। क्योंकि वे भी एकान्तवादी अज्ञानी हैं । वे, रक्षायुक्त अनेकान्तवाद से वर्जित हैं । अनेकान्तवाद, सब दोषों से रहित है और काल तथा ईश्वर आदि को भी कारण मानने के कारण अशङ्कनीय है, तथापि वे उसमें शङ्का करते हैं। नियतिवाद तथा अज्ञानवाद एकान्तवाद है, इसलिए वे शङ्का के योग्य हैं, फिर भी वे उनमें शङ्का नहीं करते हैं । इस प्रकार परित्राणयोग्य अनेकान्तवाद में शङ्का करते हुए और युक्ति विरुद्ध तथा अनर्थपूर्ण एकान्तवाद को अशङ्कनीय समझते हुए, अज्ञान से ढंके हुए वे एकान्तवादी उन कर्म-बन्धनों के स्थानों में जाते हैं ।।७।।
- पूर्वदोषैरपरितुष्यन्नाचार्यो दोषान्तरदित्सया पुनरपि प्राक्तनदृष्टान्तमधिकृत्याऽऽह -
- पूर्वोक्त दोषों से सन्तुष्ट न होकर आचार्य दूसरा दोष बताने के लिए पूर्वोक्त दृष्टान्त के विषय में फिर कहते हैं । अह तं पवेज्ज बज्झं, अहे बज्झस्स वा वए । 1मुच्चेज्ज पयपासाओ, तं तु मंदे ण देहए
॥८॥ छाया - अथ तं प्लवेत बन्धमथो बन्धस्य वा व्रजेत् । मुत्पदपाशात्तत्तु मन्दो न पश्यति ॥
व्याकरण - (अह) अव्यय (तं) बन्ध का विशेषण (बज्य) कर्म (पवेज्ज) क्रिया । (अहे) अव्यय (बज्झस्स) सम्बन्धषष्ठ्यन्त (वा) अव्यय (वए) क्रिया (मुच्चेज्ज) क्रिया (पयपासाओ) अपादान (तं) कर्म (तु) अव्यय (मंदे) कर्ता (ण) अव्यय (देहए) क्रिया ।
अन्वयार्थ - (अह) इसके पश्चात् वह मृग (तं बज्झं) उस बंधन को (पवेज्ज) लंघन कर जाय (वा) अथवा (बज्झस्स) बन्धन 1. वधेज्ज चू. ।